23 जून 2010

बेटियां

फूल की मुस्कान सी होती हैं बेटियां,
इक मकान को घर करती हैं बेटियां
घर के भले ही नासमझ भोली कहें उनको
पर पढो तो इक किताब होती हैं बेटियां
घर की हे वो रौनक नाजों से है पली
माता पिता की लाडली वो नन्ही सी कली
बढ़ती ही जो जाये है मौसम के संग में
पींगें बढ़ाती हुई vo नटखट सी बेटियां
ऊँचे पदों पे वो आसीन हैं
यादों से घर की उदासीन हैं
आती जो घर पे वो दो चार दिन
कर जातीं तरोताजा माहौल बेटियां
जाना है उनको इक दिन इस घर को छोड़कर
अपनी जड़ें समेटकर और मन को मारकर
यादों को मायके की इक पोटली बना
घर के किसी कोने मैं दबा जाती हैं बेटियां
बेटा तो है चिराग करने को रोशनी
दस्तूर को निभाती जाती हैं बेटियां

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