आसमान की तपन धरती पर झर रही थी |मैंने ताला खोला |इस बार वो नहीं थीं ,पर
उसकी उपस्थिति घर भर में घूम रही थी ,प्रतीक्षा करती हुई |सन्नाटों के कुहासों पर
उसकी आवाजें,खिलखिलाहटें रह रहकर गिर रही थी हजारों मूक लोगों की संगठित आवाजों की
तरह ....फिर घिर गया था मै एक भंवर में |इस दफे पहले से कुछ ज्यादा ,क्यूँ कि आवाजों
के इस बवंडर में कुछ सूखे पत्ते उसकी स्मृति के भी थे ........(एक लिखी जा रही कहानी का अंश )
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