मेक्सिम गोर्की जिनका बचपन का नाम अलेक्सेई पेश्कोव था एक मोची के बेटे थे |कहा जाता है की बचपन में वे अपने पिता के साथ मोची का काम सीखा और उन्हें करते देखते रहते थे |उसी बीच में एक कागज पर कलम से कुछ लिखते भी जाते और उसे घर ले जाते |पढने की अटूट इच्छा लिए जब वो सोलह वर्ष की आयु में कजान आये लेकिन जो भविष्य और द्रश्य वो आँखों में भर यहाँ आये थे उनसे बिलकुल उलटा माहौल देखा |और उन्हें यहाँ बेकरी मजदूर और बेहद कठोर जीवन में रहने को विवश होना पड़ा |मेरे विश्व्विद्ध्यालय इन्हीं घटनाओं व् सच्चाइयों से परिपूर्ण एक आत्म कथात्मक उपन्यास है |दरअसल उन्होंने तीन आत्मकथात्मक उपन्यास लिखे जिनमे ‘’माय चाइल्डहुड ,माय यूनिवर्सिटीज़ प्रमुख हैं |इन तीन उपन्यासों में गोर्की का स्वयं का व्यक्तित्व ,तत्कालीन परिस्थितियाँ ,एतिहासिक प्रष्ठभूमि आदि को जानने में मदद मिलती है |यद्यपि ये सारी सामाजिक राजनैतिक आदि घटनाएँ उनके अपने जीवन के आसपास ही घूमती हैं और उन्हीं से सम्बंधित भी हैं लेकिन ये सिर्फ उनके ‘’आत्मकथा’’ के अलवा भी तमाम आर्थिक सामाजिक राजनीति स्थितियों व् समस्याओं का लेखा जोखा भी हैं जो पाठक की आँखों में एक द्रश्य बंध की तरह खिंचती चली जाती हैं | यही उनकी आत्मकथा की सबसे बड़ी कलात्मक खूबी भी है | ग्रीनवुड.वाल्जाक ,सर वाल्टर स्काट उनके प्रिय लेखक थे गौरतलब है की वो निरंकुश ज़ार का शासन था |जिन क्रांतिकारियों व् जनवादियों ने इसकी खिलाफत की ,उनके अगले दशक में नारोद्वादियों ने उसे एक नई क्रान्ति का रूप दे दिया |नारोद्वादियों की ये विशेषता थी कि वो दबे कुचले सामाजिक और राजनैतिक स्थिति से कमज़ोर किसानों के तरफदार थे और उन्हें आदर्श मानते थे |कहना गलत न होगा की मार्क्सवादी विचारों को इससे मदद मिली ताक़त मिली |अंत में लेनिन के नेतृत्व में ये आन्दोलन विजयी हुआ |गोर्की की रचनाओं की प्रष्ठभूमि भी प्रायः इसी इतिहास के इर्द गिर्द घूमती है और ये नितांत स्वाभाविक भी है |इन् तीनों उपन्यासों में से मेरे विश्वविध्यालय सबसे आख़िरी में लिखा गया तब तक स्थितियां बदल चुकी थीं |क्रांतिकारियों जनवादियों के बाद न्रोद्वादियों का वर्चस्व भी अंतिम सांसें गिन रहा था जिसका स्थान मार्क्सवादी विचारों ने ले लिया था |रूस में एक नए नायक का जनम हो रहा था जिसका ज़िक्र या भूमिका गोर्की अपने उपन्यास द मदर में पहले ही कर चुके थे |कहा जाता है की लेनिन को गोर्की का उपन्यास माँ इतना पसंद था की उन्होंने गोर्की से कहा था की ‘’माँ जैसी कोई चीज़ लिखो और बाद के ये तीनों उपन्यास जैसे लेनिन की इच्छा पूर्ति ही थे |
गोर्की की ‘’माँ’’ कम उम्र में विधवा हो गई थी |बेटा ‘पालभेन’ हमेशा कुछ सोचता रहता |माँ व्याकुल हो जातीं |उस समय में एक विधवा औरत को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता था |बेटा अलेक्सी कमरे में कुछ बोलता या गुनगुनाता रहता जो माँ को बिलकुल समझ में नाहीं आता |एक दिन जब माँ ने बेटे से पूछ ही लिया उसकी उदासी का कारण तो बेटे ने कहा कि ‘’हम आखिर इस पिंजरे में कब तक कैद रहेंगे ?माँ ये सुनकर अचंभित रह गईं |माँ मैं सिपाही बनाना चाहता हूँ |माँ अब केवल पालभेंन की ही माँ नहीं थी बल्कि ऐसे असंख्य बेटों की माँ थी जो सत्य की राह पर चलने वाले अहिंसावादी और इमानदार सिपाही रहे |
गोर्की को पुस्तकें पढने के लिए प्रेरित करने वाला जहाज का एक बावर्ची है ‘’स्मुरी ‘’जिसका ज़िक्र गोर्की ने ‘’जीवन की राहों में ‘’में किया है |वो कहता है ‘’तुम्हे किताबें पढनी चाहियें किताबें फ़िज़ूल की चीज़ नहीं होतीं |उनसे बड़ा साथी और कोई नहीं होता ‘’|वो कहते हैं ‘’किताबों ने मेरे ह्रदय को निखारा ..उन खरोंचों को निकाला जो मेरे ह्रदय पर अपने गहरे निशाँ छोड़ गए थे,अब मुझे लगता है कि दुनियां में मैं अकेला नहीं हूँ मेरे साथ और भी कोई है ‘’|गौरतलब है कि उस समय लोगों को पुस्तकों से अधिक से अधिक दूर रखा जाता था,यह कहकर कि पुस्तकें खतरनाक होती हैं |ये सब अफवाहें जारशाही द्वारा फैलाई जाती थीं इसी से ये साबित होता है की जारशाही साहित्य से कितना घबराती थी |यद्यपि माई यूनिवर्सिटीज़ में वे इस बात की तरफ इशारा कर चुके थे कि आम जनता और बुद्धिजीवियों के बीच अभी भी काफी फासला है इसकी प्रमुख वजह वो बुद्धिजीवियों की आपसी असंगतियों व् कथनी और करनी में अंतर को भी मानते हैं |
गोर्की का कथन - "दुनिया में अन्य कोई चीज़ आदमी को इतने भयानक रूप से पंगु नहीं बनाती जितना कि सहना और परिस्थितियों की बाध्यता स्वीकार कर उनके सामने सिर झुकाना।"
मेरा बचपन में एक जगह पर गोर्की लिखते हैं मैं अपनी नहीं बल्कि उस दमघोंट और भयानक वातावरण की कहानी कह रहा हूँ जिसमे साधारण रूसी अपना जीवन बिता रहा था |’’अलेक्सी ने अपने बचपन में अपने नाना द्वारा बेंत से पिटाई किये जाने की घटना को बहुत गहराई तक महसूस किया बल्कि उससे अपने अन्दर एक नई शक्ति के उदय की अनुभूति भी उन्हें प्राप्त हुई और इसी अनुभूति ने उन्हें दुःख दर्द पीड़ा के प्रति अत्यधिक संवेदन शील बना दिया |एक बार घोड़ों की जगह में गाड़ी में जुती हुई औरत का पक्ष लेने पर अपनी जान गंवाते भी बचे |
गोर्की माई यूनिवर्सिटीज़ में लिखते हैं ‘’वस्तुतः आदमी जितनी ही नीची हैसियत का होता है उतना ही जीवन की वास्तविकता के सन्निकट होता है ‘’|एक जगह इसी उपन्यास में जब तोलस्तोयवादी गरज कर कहता है ‘’इंजील को गोली मारो तभी आदमी का झूठ बोलना खत्म होगा|ईसा को एक बार फिर सलीब पर चढ़ा दो |ईमानदारी का यही तकाजा है |’’
गोर्की कहते हैं ...मेरे सामने अब एक अथाह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि यदि धरती पर सुख के हेतु निरंतर संघर्ष का नाम जीवन है तो करुना या प्रेम क्या इस संघर्ष में राह के रोड़े नहीं ?’ एक और जगह वो कहते हैं कि ‘’करुना हानिकारक वस्तु है |करुना का मतलब क्या होता है ?ये कि बेकार के लोगों पर प्रायः ऐसे लोगों पर जो हानिकारक हैं रुपये बर्बाद किये जाएँ ?और जेलखाने और पागलखाने खोलने के लिए रुपये जाएँ ?लोग भिखमंगों को दान बाँट देते हैं पर विद्ध्यार्थी तबाह होते हैं |..वस्तुतः उनकी ये सोच लगभग हर काल में प्रासंगिक है और रहेगी जब तक मनुष्य मनुष्य के बीच शक्ति,सामर्थ्य,धन,पद आदि की असमानताएं मौजूद रहेंगी |
उनका स्पष्ट मानना था कि बहुत ‘विनीत’’ और यदि वो आस्तिक भी है ज्यादा खतरनाक होता है क्यूँ कि बदमाश तो बदमाश होता है आदमी उससे स्वतः बचकर चलता है लेकिन विनीत व्यक्ति घांस में छिपा काला नाग की तरह होता है जो दिखाई नहीं देता और मौका आने पर काट लेता है |’’
वो मानते थे कि आदमी को केवल अनुभव ही सच्चाई बयान कर सकते हैं शब्द नहीं |अपनी एक प्रसिद्द कहानी ‘’सफर का साथी ‘’ में वे कहते हैं ‘’तब मैं बहस करना बंद कर देता था ,ये सोचते हुए कि एक आदमी जिसका विशवास है किज़िंदगी चाहे जैसी भी हो हमेशा सही होती है ,और न्यायपूर्ण होती है उसे शब्द नहीं केवल तथ्य ही कायल कर सकते हैं ‘’| आदमी की अपनी दयनीयता और दुर्दशा उसे ‘’सहने’’ और परिस्थितियों की बाध्यता स्वीकार करने के ही परिणाम हैं जो लम्बे समय से चली आ रही सच्चाइयां हैं|’’ ये जीवन के उस तपे हुए अनुभव और उनकी अनेक रचनाओं की अंतर्ध्वनि के रूप में मुखर होती है |समाज की घिनौनी बातों उनके यथार्थ को ज्यूँ का त्यों वर्णित करने के पीछे के मकसद को बताते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि ‘’हाँ ये ज़रूरी था ...और फिर मनगढ़ंत और काल्पनिक रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियों को आप इतना रस लेकर पढ़ते हैं तो ये तो फिर जीवन की कटु सच्चाईयां हैं ‘’ बल्कि वो तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘’ऐसा करना मेरा अधिकार भी है और इच्छा भी कि इन सही और घ्रणित बातों का वर्णन करके मैं आपकी संवेदनाओं को कुरेदूँ ,एक चुभन पैदा करूँ ताकि आपको उस समय का सही सही अर्थ पता चले जिसमे आप रह रहे हैं |
बुद्धिजीवियों के बारे में भी उनके विचार कुछ अलग थे ‘’बुद्धिजीवियों की पूरी ज़मात ऐसी ही है हवाई ख्यालों के वास्ते विद्रोह का रास्ता थामने वाली | जब आदर्शवादी बगावत का झंडा उठाता है तो सब लुच्चे लफंगे उसके पीछे हो लेते हैं केवल द्वेषवश –समाज में उनके लिए स्थान नहीं हैं |
एक कहानी में उनका मजदूर कहता है कि ‘’क्या हम सिर्फ ये सोचते हैं कि हमारा पेट भरा रहे ...बिलकुल नहीं |हमें उन लोगों को जो हमारी गर्दन पर सवार हैं और हमारी आँखों पर पट्टियां बांधे हुए हैं यह जता देना चाहिए कि हम सब कुछ देखते हैं |हम इंसानों का सा जीवन बिताना चाहते हैं |’’
लेकिन इन्हीं मजदूरों का पक्ष लेने वाले वो स्वयं एक जगह ये भी लिखते हैं ‘’मजदूर क्रांति के लिए बगावत करते हैं ,उन्हें श्रम के साधनों और उत्पादों का उचित वितरण चाहिए जब सत्ता उनके हाथ में आ जायेगी तो क्या समझते हो कि वे राज्य को रहने देंगे ?हरगिज़ नहीं |सब एक दुसरे से टूटकर बिखर जायेंगे और हरेक अपने लिए एक शांतिपूर्ण कोना ढूँढने लगेगा |जहाँ एकांत और चैन की ज़िंदगी काटी जा सके |’’(माई युनिवर्सितीज़)वास्तव में मानव स्वभाव का ये एक अडिग सत्य और बहुत बारीक विश्लेषण है
गोर्की की रचनाओं को पढ़कर एक पुरानी कहावत याद आती है जो बचपन में सुना करते थे कि ‘’अच्छाई’’ का अंत अच्छा होता है |वाकई गोर्की जैसे उन लेखकों में से एक हैं जिनकी रचनाएँ सम्पूर्ण मानव जाती के इतिहास की एक महीन पड़ताल हैं लेकिन अंतत वो स्वयं स्वीकारते भी हैं कि ‘’प्रगति एक ढकोसला है जिसे आदमी ने अपना मन बहलाने के लिए गढ़ा है |वास्तव में जीवन में कोई तुक नहीं बिना गुलामी के प्रगति हो ही नहीं सकती |’’
अंत में गोर्की की ही एक पसंदीदा कविता
तुम कहते हो कि मैं दकियानूस बन गया ?
आश्चर्य!
क्यूँ कि मैं तो वही रहा जो था ,मैंने कब कहा कि
प्यादे को हटाओ और फ़र्जी को बढ़ाओ
मैं तो कहता हु मारो गोली पूरे खेल को ही
बस क्रान्ति तो जगती ताल पर केवल एक हुई
जो क्रान्ति थी सच्ची ,न धोखा ,ना फरेब
जिसके आगे बाद की सारी क्रांतियाँ मात हैं |
वह था प्रलय
आर उस वक़्त भी लुस्फिर खा गया गच्चा
क्यूँ की नोए आर्क पर बैठा
बन गया ताना शाह सच्चा
तो आओ उग्रपंथी दोस्तों ,आओ
नए सिरे से जोर लगाओ ,ऐसा कि काम अंजाम हो
(वंदना)
कोमल और संवेदित मन का सुगढ़ चित्रण, जीवन घटनायें दर्शन को ढालती हैं।
जवाब देंहटाएं