13 जुलाई 2013

भविष्य की स्म्रति

                            
जीवन के किसी मध्य-बिंदु में उस अज्ञात उपसंहार से गुफ्तगू करना किसी ज्ञात प्रस्तावना को पुँनाह-स्मरण करना ही होता है ..डरे हुए देह मस्तिष्क की शिथिलता को पराजित करने का ये सबसे ज़हीन तरीका है
ज़िंदगी तमाम घटनाओं से भरी एक बे-उन्वान किताब है जिसकी जिल्द उसका हश्र बयान करती है |जिसके शुरू वाती पन्ने हमेशा एक खुशबूदार और ताजगी से भरे होते हैं बनिस्बत सबसे बाद के पीले सिकुड़े और थके हुए पन्नों के इस लिहाज़ से ये ‘’इतिहास’’ के सिद्धांतों से बिलकुल विपरीत है |मेरी ज़िंदगी की किताब के ‘’अंक’’ कम ही रहे ...बस एक ...दो ..या तीन तक उसके बाद जैसे ह्रदय गति जानने वाले मोनीटर पर अंततः धडकनों की एक सीधी सपाट लाइन बन जाती है और आदमी की सांसें और जीवन ‘स्थिर’ हो जाता है वैसे ही अब मैं बिलकुल उन धड़कन विहीन दिल की तरह सपाट ज़िंदगी जी रही हूँ ...लेकिन नहीं ये गलत होगा ...मैं खुश हूँ ...बहुत खुश ...सच |अपनी उम्रदार देह की कमजोरी के बाहर और कोई विवशता नहीं मेरी हालातों से जूझने की ...लेकिन हाँ मैं जिनके साथ रहती हूँ वो जितनी मेरी हमदर्द हैं उतनी ही कडक और क्रूर भी ..वो हैं मेरी यादें ...उनसे बात करना रूठना,खुश होना हंसना दुखी होना ये  मेरी अपनी ज़िंदगी को व्यतीत करने का एक सबसे सरलतम और सुन्दर तरीका है मेरे लिए |
प्रिय दोस्त  -  
तुम प्रथ्वी के किस कोने में होगे कैसे और क्या कर रहे होगे इस वक़्त ...कडकडाती जनवरी की इस बर्फीली रात  ...नहीं जानती |क्या मेरी ही तरह तुम भी एक आराम दायक गुदगुदी आराम कुर्सी पर फायर प्लेस के सामने बैठे पुरानी स्म्रतियों में डुबकियाँ लगा रहे होगे ?तुम ने यहाँ से जाने यानी मुझसे दूर चले जाने के बाद न जाने किन २ और कितनी सडकों से यात्राये की कितने शहरों में किराए के बड़े घरों में अपने किसी छोटे से आशियाने का सपना आँखों में भरे दिन गुज़ारे होंगे ?लेकिन मैं?....जनम लेना जिंदा रहना मर जाना एक ही घर में ...तुम नहीं जानते कितना विचित्र होता है ये संयोग |तुम्हे शिकायत थी मुझसे कि मैं अपने रूप सौन्दर्य से अहंकारी हो गई हूँ मेरे सपने मेरे जीवन के बगीचे में चंचल तितली की तरह उड़ते थे और मैं तुमसे बेफिक्र हो जाती थी जबकि तुम उस ज़मीन के एक सबसे ख़ूबसूरत और कोमल पेड़ थे जो सिर्फ अपने आसपास मुझे देखते रहना चाहता था | जब तुम्हारे अविश्वास और मेरी जिद बढ़ती गई तो उन सुगन्धित सपनों में एक धूल भरा बवंडर आ गया था सब उस धुल में अद्रश्य सा हो गया और जब वो हटा तो हमारी पीठें थीं |दूसरी लड़कियों की तरह मुझे भी मेरे परिवार ने सिर्फ एक खुशहाल भविष्य के सपने ही दिखाए थे उनसे संघर्ष सहने दुःख झेलने या कठिनाइयों को पार करने का हुनर नहीं सिखाया इसीलिये तुम्हारे उन अप्रत्याशित निर्णय से मैं कांप गई थी |
मित्र ,  
जब हम बूढ़े होते हैं तो लगता है कि आज से दस दिन पहले ही तो जवान थे !सच कहूँ ...मुझे भी कभी कभी जवान लडकी होने का मुगालता हो जाता है |कल्पनाओं में एक बार हम पूरी की पूरी ज़िंदगी दुबारा जीते हैं |स्म्रतियां संगृहीत होती हैं और कभी कभी वो आपस में गुंथ /उलझ जाती हैं |अच्छा ,एक बात बताओ,यदि तुम इस वक़्त यहाँ होते इस कडकडाती ठण्ड में फायर प्लेस के सामने ...क्या बात करते हम दौनों ? अपनी जवानी की ?...क्या दीवार पर टंगी उस ख़ूबसूरत खिड़की की जो अपने द्रश्य गाहे ब गाहे मौसम के हिसाब से बदलती रहती थी ...कभी सुगन्धित हवाओ को हमसे मिलाने कमरे में ले आती कभी बादलों को निचोड़ उसकी पारदर्शी  बूंदों के साथ खिलवाड़ करती और कभी दोपहर के सन्नाटों में अपने चेहरे पर नकाब डाल बस यूँ ही ऊंघती रहती !युद्ध के दिनों के उन बंद और सहमे से दरवाजों की याद है तुम्हे जिन की संधों में से गश्ती जवानों के भारी बूटों की आवाजें उनके पास और दूर जाने की खबरें  दिया करती थीं और हम डरकर एक दूसरे से चिपक जाया करते थे ?या फिर वो गीली रेत और ओस भरी पत्तियों की सोंधी सी सुगंध जिस्म में भरे हम हाथों में अपनी चप्पलें लिए समुद्र के किनारे किनारे टहला करते थे !जानते हो अब उस समुद्र का पानी नीला नहीं रहा ?उसके काले रंग में रंग बिरंगी बत्तियों की चमक भर दी गई है जैसे किसी भोले गोल मटोल शिशु की काजल भरी आँखों में अटके झिलमिलाते आंसुओ की दो बूँदें |
ग्रुशा ...मेरी सबसे अच्छी दोस्त
बिछड़ने के जो कारन अनायास नमूदार होते हैं और एक झटके में मजबूरी बन किन्ही सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ कहीं दूर चले जाते हैं वो कितने तकलीफदेह होते हैं ये मेरे तुम्हारे सिवा और कौन जान सकता है ?और दुखों की भीड़ में ये एक और दुःख हम अनजाने से दिल के किसी कोने में दबा लेते हैं मुट्ठी में मोती की तरह |दरअसल हम स्त्रयां अपनी जवानी के दिनों में खुशियों और उम्मीदों पर आंख मूंदकर भरोसा करती हैं और यही हमें अपने घरों में सिखाया भी जाता है ,जाहिराना तौर पर वो तमाम आशाएं और सपने साकार नहीं होते और हम हतप्रभ उनके न होने को देखते रह जाते हैं चुपचाप ...अकेले....घुटे हुए से ...|इन बेडौल और निराकार सपनों को सहना हमें अपने अतीत में देखे गए वो रंगीन सपने ही सिखाते हैं जैसे छिले हुए घुटनें किसी शिशु की बाल सुलभ जिज्ञासाओं को चलना |
मैं ....अपनी सत्तर वर्ष पुरानी उम्र से गुफ्तगू करती हूँ ...जो अचानक कभी भी आकर सामने खडी हो जायेगी  
मुझे इस वक़्त लग रहा है कि बीच के इन पचास सालों की आड़ को अपने ज़ेहन से खिसका मैं अपने अतीत के पुँराने खंडहरों में पहुंच गई हूँ |उनकी यादें आज भी उतने ही जीवंत हैं |सच कहूँ ये वही आधी शताब्दी है जिसने मेरे सपनों को पतझर और खून को ठंडा कर दिया है |घरों में एक जगह होती है न बेहद परित्यक्त सी और किसी अँधेरे से कोने में जिसे हम स्टोर रूम कहते हैं |उसे अपनी मोर्डन बैठक या बेड रूम की तरह सजाने की न तो ज़रुरत समझी जाती है और ना उसमे बेवजह जाया जाता है लेकिन वो स्टोर रूम धीरे धीरे सामान से ज्यादा हमारी स्म्रतियों का भण्डार गृह बनता जाता है और फिर मुझ जितना पुराना घर और यादें हों तब तो उसमे स्म्रतियां हर साल आती मेहमानों की तरह हैं पर फिर कभी नहीं जातीं |मैं अक्सर अपनी छडी टेकती हुई सेहन पार कर उस अंधेरी सी कोठरी में जाती हूँ जिसे स्टोर रूम कहा जाता है जाते ही वो छोटी सी खिड़की खोलती हूँ जो बहुमंजिला इमारतों की तरफ खुलती है |लेकिन उनमे रोशनी अब दीवारों से टकराकर आती है सीधे नहीं |मै भीतर जाकर वो पुँराना साठ वाट के लट्टू का काला खटका खोलती हूँ स्म्रतियां रोशन हो जाती हैं अपनी पीली मरियल धुंधलाहट के साथ |मैं उन सभी चीज़ों को छू छूकर देखती हूँ ...ये वो नकारा आउट डेटेड और तिरस्कृत चीज़ें हैं जिन्होंने दो साल से लेकर चालीस साल तक मेरी सुविधाओं का ख्याल रखा है |ये चीज़ें मुझे उन्हीं पुराने दोस्तों की तरह लगती हैं जो अपनी स्म्रतियों की धुन्ध्लाह्त छोड़ जीवन के इस अरण्य में कहीं खो गए थे |
मैं उस स्टोर रूम की एक एक चीज़ को गौर से देखती हूँ ...काठ की तीन पैरों वाली मेज़ जिसका एक पाया टूटकर न जाने कहाँ बेसुध पड़ा होगा,पुराने पत्थर की चक्की,चूहेदानियां,मज़बूत पलंग दरअसल इन सब चीज़ों से मेरा कोई वास्ता नहीं क्यूँ की इन का मेरे लिए कोई याद का सिरा नहीं |ये उस वक़्त की चीज़ें हैं जब स्टोर रूम नामकी कोई जगह घरों में नहीं होती होगी और इन पर जिन उँगलियों की छापें हैं उन हाथों को मैंने अपने होशोहवास में कभी देखा नहीं |जिन आँखों ने इन चीज़ों को देखा होगा इनकी कद्र और निष्ठां उन आँखों में ज़रूर होगी |ये चीज़ें सदियों से उदास हैं शायद इसलिए कि इनके पुराने दोस्त मर चुके हैं |

ओह ...फायर प्लेस की लकड़ियों के वो गट्ठे अब राख हो रहे हैं ...हर अंत नए की शुरुवात का बहाना होता है ....

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