8 जनवरी 2012

शेष दुःख

कुछ भ्रम देर तक पीछा करते हैं नींद का
सिरहाने की हदें भिगो देती हैं चंद किताबें 
शब्द खोदने लगते हैं सपनों की ज़मीन 
और वक़्त अचानक पलट कर देखने लगता 
धरती का वो आखिरी पेड़
जिसके झुरमुट में अटकी है कोई
खुशी से लथपथ फटी चिथड़ी स्मृति  
किसी सूखे पत्ते की ओट में , हवा के डर से 
थकी,उदास और सहमी सी 
करवटें भींग जाती है विषाद से
घूमने लगते हैं घड़ी के कांटे उलटे 
रातें बदलती हैं तेज़ी से पुराने अँधेरे
देखती है कोई कोफ़्त तब 
हरे भरे पेड़ को वापस ठूंठ हो जाते हुए
या नदी पर खुश्क दरारों की तडकन  
सोचती है पीठ किसी क्षत-विक्षत सपने का उघडा हुआ ज़ख्म
सुदूर एक  घुटी सी चीख टीसती है
कौंधने के पीड़ा-सुख तक  चुपचाप,बेआवाज़
किसी डरे हुए पक्षी से फडफडाते हैं कलेंडर के पन्ने
छिपाते हुए खुद से अपनी तारीखों के अवसाद
आंधी में सूखे पत्तों से उड़ते हुए वो मुलायम स्पर्श 
फिर ओढ़ लेते हैं कोई हंसी,दुःख,उदासी या मलाल
रात....उम्मीद का पीछा करते   शब्दों की निशानदेही पर 
पहुँच जाती  हैं उस नदी तक 
जहाँ चांद की छाँह में स्मृतियाँ निचोड़ रही होती हैं 
अपने शेष दुःख

6 टिप्‍पणियां:

  1. वंदना जी, आपका भावपूर्ण लेखन अच्छा लगा.
    मनोस्थिति की सुन्दर अभिव्यक्ति.

    आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.

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