25 फ़रवरी 2012

मै खड़ी हूँ /
आधुनिकता से दमकती उस नई नवेली बहुमंजिला इमारत के सामने 
जो मेरे बचपन के सपाट मैदान की स्मृति है
बगीचे,तरन-तारण,मॉल/कसीनो 
और इन भव्य दीवारों के बीच टहलती 
सभ्यता नव्यता संस्कार 
ये सब मेरे इतिहास के भविष्य से ताल्लुक  रखते हैं 
पोंछती हूँ अपनी स्मृतियों के धुंधले आईने से 
वक़्त का चेहरा 
तो नज़र आती  हैं वो आकृतियाँ 
जिनके चेहरे अपनी ऑंखें गँवा  चुके हैं 
ठीक वैसे ही जैसे खो दीये थे अपने हाथ 
ताज के कारीगरों ने 
आकृतियाँ....
जिनके स्वप्न धूल से भरे बीहड़ थे 
जहाँ नल कूप धूप में खड़े थे प्यासे 
जीवन  से अघाए किसी संत की मानिंद 
पर रात में तकते थे ये आसमान 
हर कहानी की जड़ के अंधेरों में 
एक चिंगारी सुलगती है नाउम्मीदी की 
सपनों में उरजती  है पर  
फसलें लहलहाती ,
हालाकि ,टिकने को इनके भी कंधे ही हैं 
पर कुदालें चोट के लिए नहीं होतीं 
इनके प्रहार कभी २ सबूत भी होते हैं 
किसी बंजर धरती के 
 वो धरती ,जो जल  के एवज में 
निरस्त कर देती है रक्त का सोखना 
प्रथ्वी  पर खरोंचें हैं अब तक 
घोड़ों के खुरों की आवाजें टकराती है जो 
दीवारों के बीच के सन्नाटों में 
गोया धडकनें हों ये सच और झूठ के बीच की 
सुख और संताप के दरमियाना 
एक तरलता होती है पारे की सी
हम भले ही भुला दे पर  
 इमारतों को याद होता है अपना अतीत 
बिलकुल वैसे ही जैसे 
वस्त्र की धडकनों में बजता है कबीर 
और काँटों से बचाकर 
ले जाते हैं रैदास |





2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर वंदना जी ... आधुकनिकता ...ने कितने ज़मीन और सभ्यता को लील गया ... सुंदर पोस्ट /
    मेरे भी ब्लॉग पर आपका स्वागत है /

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