पिछले माह सुना कि नया ज्ञानोदय पत्रिका में आधार प्रकाशन द्वरा प्रकाशित छः लेखक लेखिकाओं के उपन्यासों की सीरिज़ पर एक वरिष्ठ और कुछ पत्रिकाओं के चहेते आलोचक की अजीबोगरीब समीक्षा छपी है | मेरा सदस्यता शुल्क समाप्त हो जाने के कारण मेरे पास उस माह वो पत्रिका नहीं पहुँच पाई |कुछ फोन और मेल इस दौरान आते रहे उस विचित्र समीक्षा को लेकर |एक दिन मुझे एक पत्रिका में ही उन वरिष्ठ आलोचक महोदय का फोन नंबर मिल गया मैंने उनसे फोन पर इस सम्बन्ध में बातचीत की |उनके ज़वाब हतप्रभ करने वाले थे |चूँकि अभी साहित्य क्षेत्र में आये हुए ज्यादा वक़्त नहीं हुआ है ,और दुसरे दिल्ली से बहुत दूर हूँ जो न हिन्दी साहित्य का एक मज़बूत स्तम्भ है बल्कि ऐसा ना होना साहित्य जगत के संपर्क कौशल की एक कमजोरी में गिना जाता है ...बहरहाल...उनके ज़वाबों ने अंतत ये सोचने पर मजबूर कर दिया की ऐसा भी होता है ?और क्या ऐसा होना चाहिए ?कभी कभी लगता है की साहित्य क्षेत्र में जिन ''बड़े'' लोगों के नाम हमें आक्रान्त करते हैं वो वास्तविक (वैचारिक )रूप में कितने छोटे और निकृष्ट हैं ...|फोन रखने के बाद बहुत देर तक सोचते रहे कि कमी आखिर कहाँ है?हमारे समाज में ...साहित्य में जो समाज का ही अक्स दिखाता है या फिर उस व्यक्ति या संस्था में जिसकी सोच इस बाजारवादी मानसिकता में बेहद निम्न स्तर तक पहुँच गयी है ?
विचारणीय और सार्थक पोस्ट।
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