मार्खेज़ ने कहा था लेखन एक
तनहा पेशा है | इन चंद शब्दों के पीछे लेखक और लेखन की तमाम उलझनों व् तर्कों का
समाधान छिपा है | ज़ाहिर है कि लेखन किसी लेखक के लिए उसका एक निहायत व्यक्तिगत
अनुभव और कल्पनाशीलता का माध्यम है लेकिन वो सार्थकता पाठकों के बीच (सामूहिक पक्ष
में )ही पाता है |किसी रचना की महत्ता का गणित अंकों पर नहीं बल्कि प्रतिभा की गुणवत्ता
पर आश्रित होता है |लेकिन श्रेष्ठता के मायने ये कौन और कैसे निर्धारित करेगा ?
इसे ‘’योग्यता’’ के किस बैरोमीटर से नापा जाएगा? कितना यथार्थ ,कितनी कल्पना,कैसी
प्रतीकात्मकता और कितने संकेत और ब्योरे इनके अनुपात ,विश्वसनीयता ,सम्मिश्रण ये
सब वस्ताविकता की किस कसौटी पर परखा जाए ये एक गंभीर मसला है |ये कौन तय करेगा कि
कहानी का आलोचक अपने संज्ञान, अनुभवों ,तटस्थता आदि के स्तर पर आलोचना के मापदंडों
हेतु स्वयं कितना सटीक बैठता है ?किसी कहानी की बाकायदा आलोचना करना और किसी कहानी
पर अपना ‘’पाठकीय मत’’ देना ये दो बिलकुल अलग बातें हैं |किसी भी रचना को पढने उस
पर अपना पक्ष रखने और उसके लेखन की बारीकियों को बताने की कसौटी हर पाठक (आलोचक की
भी ) अलग अलग होती है जो उसके स्वयं के लेखिकीय अनुभवों उसकी चारित्रिक विशेषताओं
व् उसके साहित्यिक ओहदे पर भी निर्भर करती है |कभी कभी एक सामान्य पाठक एक
सिद्धहस्त आलोचक (?) से अधिक सटीक समीक्षा और सूक्षम आकलन कर देता है | किसी रचना
विशेष के सन्दर्भ में जब आलोचक सहित सब पाठकों की प्रतिक्रियाएं उनकी रूचि के विषय
,शिल्प आदि से सम्बंधित अलग अलग होती हैं तो फिर किसी एक व्यक्ति द्वारा उस रचना
की आलोचना (प्रसंशा या बुराई) को सटीक कैसे माना जा सकता है ?
हर आलोचना का इमानदारी से चिंतन यदि लेखक करे तो ऐसा होना शायद संभव है ...
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