इंसानों की दुनिया
में ‘’भूलना’’ एक स्वाभाविक और सतत क्रिया है जिसे मनोवैज्ञानिक लाभप्रद और अति
आवशयक मानते हैं |यदि भूलेंगे नहीं तो स्म्रतियों की परतें दिमाग में जमती जायेंगी
और आदमी विक्षिप्त हो जाएगा | ग्रेगर सेम्सा बन जाएगा |लेकिन कुछ मामलों में लगता
है दुनिया में जितनी अराजकता ,हिंसा ,क्रूरता ,त्रासदियाँ हैं , वो सब ‘’भूलते
जाने’’ के ही कुपरिणाम हैं | पिछली सदी का सर्वाधिक जघन्य हत्याकांड निठारी ,भोपाल
गैस त्रासदी ,उसके बाद निर्भया, फिर दो बहनों को मारकर पेड़ पर लटकाना, आरुशी और
शीना (इन्द्रानी मुखर्जी ) काण्ड ,अख़लाक़ की हत्या,पत्रकारों, वामपंथियों की ह्त्या
, आज मासूमोको जलाकर मार देने की घटना ...| क्या हमने पिछली इन घटनाओं में जो रोष
दिखाया था , विरोध में तमाम आन्दोलन किये,मोमबत्तियां लेकर जुलूस निकाला ,उन
हत्यारों ,दरिंदों का क्या हुआ जानने की कोशिश की ? कहीं कोट करने के लिए या किसी
आलेख में विषय आ जाने पर उदाहरण स्वरुप भले ही उन त्रासदियों को स्मरण कर लिया जाए
लेकिन घटना के वक्त हम जो उद्वेलित और क्रोधित हुए थे क्या उन घटनाओं के प्रति अब
भी वो तीव्रता बाकी है ?ध्यातत्व है कि हमारी लचर क़ानून व्यवस्था, पुलिस व्
नेतागणों सहित उन गुनाहगारों ने हमारी इस सायास भूल जाने की आदत का भरपूर लाभ
उठाया है |
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