6 अगस्त 2016

शुभम श्री की कवितायें बनाम ‘’बोल्ड कहानियों ’’ का काव्यात्मक संस्करण




ये प्रयोगों का युग है | कोई नई बात नहीं ..हर युग में उसकी सोच, समकालीनता आदि के मद्दे नज़र बदलाव होते हैं, होने चाहिए | कहा जाता है बदलाव हमेशा अच्छा होता है लेकिन ( यदि कालगत प्रयोगधर्मिता बनाम बदलाव का हवाला दे इस वाक्य की मीमांसा करें तो ) ऐसा होना ज़रूरी नहीं |संगीत में रेमो फर्नांडीज़ ने रैप सोंग्स की शुरुवात की |ज़ाहिर है वो एक नई टेक्नीक थी नया प्रयोग था जमकर सराहा गया , तब से शंकर महादेवन के ‘’ब्रीथ्लैस’’ सोंग तक आते वो प्रयोग फेल हो गया और उसके स्थान पर लोक संगीत के आधुनिक वर्शन और सूफी बेस्ड गीतों ने लोगों का दिल जीता लेकिन अब....| पारसी थियेटर या नाट्यशास्त्र पर आधारित नाटक जो प्रायः भरत मुनि के शास्त्र पर बेस्ड होते थे  ,वो परम्परा टूटते टूटते अब नुक्कड़ नाटक, एकल अभिनय, या कबीर के गीतों का नाट्यरूपांतरण तक पहुँच गयी |ज़ाहिर हैं प्रयोग आगे भी होते रहेंगे |प्रयोगवादिता तो हर काल की स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन क्या इन प्रयोगों का कोई दीर्घगामी प्रभाव भी होगा ? ज़रूरी ये हैं | कह सकते हैं कि किसी भी विधा में बदलाव काल और रूचि सापेक्ष होता है |ये एक सतत प्रक्रिया है |अर्थात ‘’तोड़ फोड़ में तोड़ फोड़ ‘’|शुभम श्री की पुरस्कार समेत कुछ कवितायें पढ़ीं | पिछले दिनों कहानी विधा में ‘’बोल्ड कहानियों’’ की धूम रही ज्ञातत्व है कि जो स्वीकार्य/ अस्वीकार्य के तर्क झेलती रही | पुरस्कृत कवियत्री की कवितायें इसी ‘’बोल्ड परम्परा’’ का काव्यात्मक संस्करण कही जा सकती हैं |ये सही है कि ये ‘’बोल्ड बनाम क्रांतिकारी’’ कवितायें हिन्दी साहित्य के स्थापित कवियों को तुलनात्मक रूप से अधिक पसंद आईं |लेकिन शेष पाठकों की नापसंदगी को खारिज नहीं किया जा सकता | आदरनीय अर्चना वर्मा के लेख जिसमे वो पुरस्कृत कवयित्री के कविताओं की विशेषताओं के सन्दर्भ में ‘’नए’’ शिक्षार्थियों को संबोधित कर रही हैं|पाठक  पूछना चाहेंगे ... क्या इसीलिये इसे कविता माना जाए क्यूँ कि....

(1)-‘’कवयित्री ऐसा कुछ कर के दिखा रही है जैसा और कोई कर नहीं सका है। यानी कविता के बने बनाये ढाँचे में तोड़-फोड़। तो यह तो अप-टू-डेट वाला सन्दर्भ हुआ?‘’
(पुनश्च)
(2)-‘’कविता का बना बनाया ढाँचा और तोड़ फोड़?‘’ 
(3)-यहाँ कविता से सम्बन्धित सुर्खियों में अप्रत्याशित दूरारूढ़ तुलनाएँ विस्मित करती हैँ?
(4)-कविता की तरह पेश की गयी चीज़ को कविता न मानने का सवाल नहीं उठता? 
(5)- बने बनाये ढाँचे तो बीसवीं सदी में घुसने के साथ ही टूट फूट रहे हैँ लगातार?
(6)-क्या ऐसा मानने का वक्त आ गया है कि साहित्य नामक सांस्कृतिक संरचना अपने संभावित विनाश का सामना कर रही है? 
(7)- ‘’(यदि)मान्यता एक "दी हुई" हुई चीज़ होती है, कोई अन्तरंग गुण नहीं ?’’क्या ये मान्यता (दी हुई चीज़) सिर्फ उनकी विरासत है जो इसे अनेकानेक उदाहरणों/ तर्कों में इसे ‘’श्रेष्ठतम ‘’ सिद्ध करने पर आमादा हैं ?




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें