8 नवंबर 2011

-मन नहीं लगता



‘’मेरा मन नहीं लगता ‘’
भीड़ से कहना चाहती थी मै
कि तुम्हारे मन बहलाने के तमाम ठिकानों   
रिश्तों ,बाज़ारों,धरनों,हडतालों,उपलब्धियों,संबंधों
मेले ठेलों,त्योहारों,प्रवचनों,हास परिहासों
के बावजूद भी 
भरी भीड़ में अनजान हूँ मै
जंगल नुमा किसी बहलावे को भोगते
किसी चिड़ियाघर  में ,तमाम खाध्य पदार्थों के बीच
दर्शकों के शोर से घिरे उदास हिरन सी |
उम्र के साथ आस्थाएं बढ़ती हैं
एकांत उन्ही में से जन्मा कोई
नक्षत्र होगा ,जो मैंने चुना
उस अद्भुत जीवंत प्रकृति के आगोश में
जिसे तुम सन्नाटा कहते थे और
मै आकाश ,तुम जिजीविषा मानते थे
और मै नदी
पेड़ फूल पत्तों को तुमने सिर्फ पतझड़ कहा  
और मैंने बीज
तुमने मुझे पलायन वादी कहा  
जब कि तुमने ही  
उसकी खूबसूरती में विभीषिकाएँ और
बसंत में से पतझड़ को चुना
तुम्हारे जीने के समस्त उपक्रम
उपलब्धियां,महत्वाकांक्षाएं  
खरीद फरोख्त,जलवे जलसे
क्या विस्मृति -भ्रम से कुछ अलग था ?
आज जब तुम्हे देख रही हूँ
महत्वाकांक्षाओं के आकाश में गोते लगाते
अगणित सितारों के बीच चाँद की तरह रोशन होते
चाँद ,जो घिरा है काले बादलों से
कहना चाहती हूँ सिर्फ तुमसे ये,
के वाकई  
‘’मेरा मन नहीं लगता ‘’ 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपने एकदम सच व्यान किया...वंदना जे.../

    जवाब देंहटाएं
  2. अकेलेपन की पीड़ा को ज्यों शब्दों में ढाल कागज़ पर उतार दिया है आपने....बस, वाह...वाह...वाह...

    जवाब देंहटाएं