23 नवंबर 2011

दिन के उजालों में


ना जाने क्यूँ
 कुछ खास किस्म के लोगों को
,कहते हुए इंसान
भीतर कुछ दरकता सा है
लगता है ज़ुबान फिसल गई
पछतावों पर मलहम लगाती हैं तब
पुनर्ज़न्म की कहानियां
किसी उगती सदी में
सूरज ने जो दी थी कुछ मोहलत
अंधेरों की ,सुकून पाने को हमें ,
अब वे अँधेरे सिर्फ डराने के लिए बचे हैं
गब्बर सिंह की तरह ,
वेश बदलकर अब भी घूमते हैं इन अंधेरों में राजा
नहीं नहीं ,अपनी प्रजा की खुश हाली देखने नहीं
बल्कि बटोरने कुछ अँधेरे कुछ स्याह कालापन
ताकि जनता की आँखों में झोंका जा सके उन्हें
दिन के उजालों में .....

3 टिप्‍पणियां:

  1. बल्कि बटोरने कुछ अँधेरे कुछ स्याह कालापन
    ताकि जनता की आँखों में झोंका जा सके उन्हें
    दिन के उजालों में .....

    सही कहा है .. अच्छी प्रस्तुति

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