18 अगस्त 2012


१९०८ की महिला-क्रांति से लेकर
आज की नारी मुक्ति -भ्रान्ति तक
स्त्री आज़ाद होती रही है
किश्तों में
देस्दिमोना आज भी बैठी है उसी बिस्तर पर
मौत की प्रतीक्षा में सिर झुकाए जबकि
इमीलियायें लहरा रही हैं मुट्ठियाँ शब्दों की
झाड़ते हुए धूल अपने निर्मम भ्रमों से
हजारों सीतायें ,द्रोपदियाँ ,श्कुंतालायें क्या अब नहीं
अब कोई कथाकार नहीं उनकी कथाएं रचने को
ये अलग बात है ....| 
सिमोन द बुवा से लेकर
बेट्टी फ्रायड मैन और  
वालस्तानक्राफ्ट या ताराबाई शिंदे लेकर
आज तक  
 कभी हक और कभी
आजादी के लिए कितनी ही
लड़ाईयां लड़ीं हमने  
और तमाम अभी बाकी हैं
पुरुष सत्ता के अघोषित कुरुक्षेत्र में ,
क्या खत्म हो चुके हैं हमारे तमाम अस्त्र शस्त्र विरोधों के ,
मर्यादाओं,सभ्यताओं,विचारों,संवेदनाओं और
तर्कों के?
कि हम खींचने पर उतारू हैं
अपने ही प्रतिद्वंद्वी के हलक से
उसी की ज़ुबान (भाषा)?
और कहीं ,
बिछा रहे हैं अपनी प्रसिद्धि की चादर पर
स्त्री की ही देह और खुश हो रहे हैं
स्त्री की मुक्ति पर?
गढ़ रहे हैं अ-मर्यादाओं के
नित नए कीर्तिमान कोसते हुए
पुरुषों को ?
जबकि खेल जगत,विज्ञान और तकनीक के 
कीर्तिमान रचती स्त्रियों पर नज़र 
कम ही जाती है हमारी |
ये हमारी हीनता ग्रंथि तो नहीं ?
इतने खोखले ,तर्कहीन और गैरज़रूरी हो गए हैं तथ्य ,  
कि मुद्दों की प्रासंगिकता खो चुके है हम ?
ये किस किस्म की दया है और कैसा प्रतिशोध?
कैसी नारी शक्ति है और कैसी नारी मुक्ति?
क्या विरोध आरोपों से शुरू हो दया पर खत्म होना चाहियें?
क्या हो नहीं सकता ये कि बे-जड़ दरख्त को सींचने
और मुरझाने पर दुखी होने को त्याग हम
संवारें ज़र्ज़र जड़ें समूची व्यवस्था की?
क्यूँ कि अराजकताओं की इस लंबी व
श्रंखलाबद्ध परम्पराओं में और भी कई प्रश्न है
जो दबे हैं गहरी उलझी जड़ों में ,
स्त्री दुर-दशा के इस पौराणिक और
विशाल वृक्ष की |

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