जो देह नहीं थी.....या शायद
देह के अलावा और कुछ भी नहीं |
पत्थरों में सांस फूंकते खुद पत्थर हो जाना पेशा था जिनका |
पौराणिक छद्मों को, मौजूदा लम्हों के जंगल में दफनाते चले जाना
परंपरागत जुनून का एक तयशुदा हिस्सा था |
लिहाज़ा डूबना होता था उन्हें ,जिस्मों की उन अतल गहराइयों तक
जहा मौन को चीखने की इजाजत नहीं थी |
चेहरे विहीन देह और उसमे डूबती उतराती
संवेदन- शून्य उस भाषा को.... इतिहास के पन्नों में
दर्ज करानी होती थी, अपनी मौन उपस्थिति |
हर अदा ,जो अश्रु के गर्भ में पली
सौंदर्य की गवाही देनी थी, भविष्य को उसके |
इतिहास ने निचोडकर कुछ पत्थर
उगा दिए थे हरियाली के बीज
मौजूदा आँखों की नमी के लिए !
हवाएं भटकती हैं अब भी थापों के किस्से
लादे सर पर, खोज़ती फिरती हैं ध्वनियों के द्वार
सारंगी का एकांत रुदन
तैरता है रंग महल में अब भी खोजता सा
खनकती पायलों के बिम्ब |
वो भित्ति-चित्र, जिनमे थरथराती हैं,
सिसकियाँ, रात की धीमी लौ में |
जिंदा थी घुंघरुओं की झंकार
वो साजो श्रृंगार, जिनके अह्सांसों में
वो उन्हें आँखों में भरे, सो गए हैं |
लंबी नीद .....
यौवन को झरते देखा है उनने
समय की हथेली पर |
उस देव ने भी जिनके कारन लहू लुहान हुआ
दासित्व उनका |
देवदासी के जीवन को शब्द दिए हैं ..बहुत संवेदनशील रचना
जवाब देंहटाएंदेवदासी जीवन का जीवन्त चित्रण किया है…………मार्मिक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद संगीता जी वंदनाजी ...आपके ईमेल एड चाहती हूँ यदि आप दौनों दे सकें
जवाब देंहटाएंसाभार
देवदासी के जीवन का मार्मिक और खूबसूरत चित्रण.
जवाब देंहटाएंबधाई.
thanks ishan
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