24 अप्रैल 2011

यथार्थ ...


                        छिपाकर रात से , चंद टुकड़े सुबह के                       
रख छोड़े थे मन के उस अज्ञात कोने में ,
सुलगते सूरज की तपिश में ,
ओढ़ लिया जायेगा जिन्हें  छांह बना जीवन की |
जैसे सुखा दिया करती थीं माँ हरी सब्जियां ,
बेमौसम की खुशी  , थाली में सजाने को  |
रात से निचोड़ चांदनी के कुछ  बिम्ब 
भींच लिए थे हथेली में ,उलीचने को देह पर
जैसे ,काली दीवार पर सूर्योदय का चित्र  |
जैसे, थकान  भरे सप्ताह के बाद 
 किसी शीतल झरने के मौन-गीत में भीगते ,
एकांत के सुर | और सिगरेट के नरम छल्लों से
खेलता आसमान |
हाँ मगर इससे पहले ,
किसी पुराने संग्रहालय में
विचरते नए अंधेरों को, डराते रहे जो
 इतिहास में देह बन ......
 सुला दिया था रात की कोठरी में उन्हें 
बंद कर दिए थे द्वार हमेशा के लिए |    
खुल गई  है कोई आंख किसी रंध की शायद
कि भरी रौशनी में ,
झिरने लगी है अँधेरे की वो पतली सी किरण ,
उस खिडकी से ,जो खुलती हैं नरम रूह तक मेरी |
बूँद बूँद टपकती है रात

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