16 अक्तूबर 2011

जीवन



बोझिल आँखों में जागती रात सा ,
 बीतता रहता है कुछ ,रीतता सा
 हर रोज ....!
जैसे आदमी हर सुबह
खोल लेता है अपना अतीत अखबार की तरह
अपने सामने या
भविष्य की ज़मीन पर
बिखेर लेता है अनुमानों की चंद लकीरें  
शेष सांसों के इर्द गिर्द
 उलट-पुलट  
गढता उन्हें किन्हीं आड़ी-टेडी लकीरों ,कोण
 तिकोनों ,वृत्त ,कुछ चौकोर मे
रचता है कुछ आकृतियाँ
और विशवास को ओढ़  कर  
सो जाता है एक गहरी नींद
उस लंबी दोपहरी में ..

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