किसी कहानी की पटकथा के,
उबड खाबड रास्तों के बीच
कहीं अपनी पगडंडी तलाशने जैसा ,
ख्वाब लगता है अब
पहुँच पाना उस हिमालय तक
जिसकी चोटी पर खड़े हो,
वादा था अपने एकांत से
मुट्ठी खोल देने का
सपनों से भरी ,
रंग देना नीले आसमान को तितलियों से,
उड़ा देना हाथों से यादों के कुछ खूबसूरत कबूतर
और हो जाना मुक्त पिंजरों से
समुद्र के बाजू
गीली रेत का वो ढेर , जिसमे पैर घुसा
बना आये थे एक घर
नहीं जानते थे तब कि
हर लौटने की तासीर होती है
पथरीले पहाड़ों में बदल जाना
तकलीफ देह होता है नियति की तलहटी से देखना
आस्मां को छेदते हुए उन हौसलों को
एंठी गर्दन को सहलाते
फिर फिर उछाल दिया जाना
आसमान में बार बार ...
डाल से गिरे सेब सा ,सेब की
गुरुत्वाकर्षण शक्ति को
परखने की कुटिल मंशा लिये | ,
इससे तो बेहतर था
किसी ऊब की तरह
बिखर जाना ज़मीन पर
गीली रेत पर पाँव रखते हुए ....|
सुन्दर रचना सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें .
सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई..
जवाब देंहटाएंअभिव्यंजना मे आप का स्वागत है...
अनुपम अभिव्यक्ति कोमल भावों की...वाह...
जवाब देंहटाएंshukriya Ranjana ji
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