24 अगस्त 2012



 खिड़की से आती हुई हवा में
 फडफडा रहे हैं 
मेरी मेज़ पर रखे कुछ कोरे कागज
सन्नाटों को भरते हुए अपनी रिक्तता में 
घूरते हैं मुझको    
कलम की नोक पर कांपती हैं आत्मा  
शब्दों की'
मै तैरा देती हूँ उन्हें स्मृतियों की नदी में
नौका बना
इस तरह  
कूलों की अहमियत को
इज्ज़त बख्शती हूँ मै   
कोरा घड़ा हो,कोरा यौवन या फिर
कोरे पन्ने ही
कितनी जिजीविषा होती हैं इनमे अपने
भरे जाने की ?
सपनों को रख दिया है मैंने मौन की दहलीज़ पर
दीपक बना   
बुझा दिया है लेम्प
खिड़की खुली है अब भी  
पर कागजों में कोई हलचल नहीं
सोती हुई मासूम कतरनों को पढ़ना
अच्छा लगता है मुझे 

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