22 जुलाई 2013

लोग उस ज़लज़ले की बातें
अपने हुनरों की तरह कर रहे हैं
रस्मों की तरह दुःख और
रिवाजों की तरह गढ़ रहे हैं कवितायें
एक एक द्रश्य को दूसरों की आँखों में भर
अपनी संवेदनाओं की कस रहे हैं खूंटियां
पसंदों/पत्रों की कसौटी पर
इस बार उनके उलाहनों ने
फिर कोसा है व्यवस्थाओं से लेकर
आस्तिकों तक को
जैसे कुछ दिन पूर्व हुए एक जघन्य काण्ड में
गालियाँ खाई थीं नक्सलियों की
गोलियों ने
उससे भी कुछ पहले
एक और नोचा खसोटी और दरिन्दगी
बन गई थी अखबारों सडकों आँखों की
बड़ी खबर 
उलाहित किया था पुरुष सत्ता और
दिल्ली पुलिस /सत्ता को
उससे पहले........
अब लगता है की यदि ये घटनाएँ समय २ पर न होंगी
तो कैसे चलेंगे चैनलों की ये
‘’आज की सबसे बड़ी खबर,,या २०० ख़बरें दो मिनिट में?
न होंगी तो कहाँ जायेंगे वो नए अखबार मालिक
जिनकी बड़ी प्रेरणा है
ये दुर्दांत ख़बरें  


2 टिप्‍पणियां: