7 जनवरी 2014

माँ

माँ
नहीं लिख पाईं अपने जीवन की डायरी में  
अपने बिखरे हुए भविष्य को कभी
 उतना व्यवस्थित और नियमबद्ध
जितना अचूक लिखती रहीं वो
पिछले रिश्तों के अहसानों व्
अगले महीने के किराने और
ज़रूरी कामों की सूची को
अपनी बूढ़ी याददाश्त और  
उस चीकट ‘’कापी’’ में
माँ नहीं रख पाई सहेजकर अपने
बच्चों को अपने पास हमेशा
जैसे रखती रही वो
सीमित आय और असीमित खर्चों के बीच
चिल्लर बचाकर अनाज के डब्बों में













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