15 अप्रैल 2015

‘’दी हाइब’’ ‘द फेमिली व्  ‘’मिसिज़ काल्डवेल स्पीक्स टू हर सन ‘’जैसे विश्व प्रसिद्द स्पेन के उपन्यासकार एवं नोबेल पुरस्कार विजेता (1989 ) कामिलो खोसे सेला द्वारा लिखित ‘’पास्कुआल दुआर्ते का परिवार’’ आज पढकर पूरा किया |यद्यपि ये उपन्यास मूलतः पास्कुआल और उनके परिवार के आसपास घूमता है लेकिन उसमे समकालीन स्पेनी समाज के संघर्ष  , सामाजिक भयावहता और निष्ठुर यथार्थवाद का जीवंत और मार्मिक वर्णन किया गया है| ये उपन्यास तात्कालीन समय के फ्रांको-शासन की चमचमाती छवि के नेपथ्य में  आम जनता के निष्ठुर यथार्थ का खुलासा है |किसी उपन्यास में विस्तार (Details) की क्या अहमियत होती है ये उपन्यास बहुत बारीकी से दर्शाता है | राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उक्त उपन्यास का हिन्दी अनुवाद पाठक द्वारा उपन्यासकार के मर्म को गहराई तक समझ लेने में काफी हद तक मददगार है | 

11 अप्रैल 2015

पढने का शौक पुराना है लेकिन पिछले तीन चार वर्षों में सुनियोजित तरीके से एक ब्यवस्थित और कुछ ज्यादा गंभीरता से किताबें पढने का जूनून सवार हुआ | निस्संदेह अनुकूल अवसर भी मिले जिनमे कुछ कवितायेँ ,लेख ,यात्रा वृत्तांत लेकिन सबसे ज्यादा कहानियाँ थीं और बहुत कम उपन्यास भी |शुरू में जो रचनाएं बाँध लेती थीं उन्हें पूरा पढ़ते थे और जिनमे कुछ बिखराव सा लगता या कमज़ोर विषयवस्तु को खींचते जाना अथवा अपने शिल्प या कथ्य के ‘’चमत्कारों’’ की उबाऊ बोझिलता के कारन उन्हें दोचार पंक्ति या प्रष्ट पढ़कर बंद कर दिया करते थे लेकिन अब जब पाठकीय परिपक्वता और लेश मात्र प्रतिबद्धता भी बढ़ी तो रचना ‘’हर स्थिति में ‘’ पूरा पढने की क्षमता को दुरुस्त किया ये सोचते हुए कि शास्त्रीय संगीत या उत्कृष्ट कला के अच्छे श्रोता/पारखी बनने की तरह अच्छे साहित्य के गंभीर पाठक होना भी एक तैयारी है एक 'महारथ ' है और उसमे दक्षता की दिशा में बढना चाहिए |कभी २ कोई रचना बीच में बिखरकर अंत में रोचक हो जाती थी ये अनुभव भी तभी हुए | जितना भी पढ़ा (जिसमे क्षेत्रीय से लेकर विदेशी साहित्य तक था लेकिन बात यहाँ सिर्फ हिन्दी साहित्य तक सीमित हैं )उनमे शिल्प /प्रवाह रोचकता तो सब शानदार थी लेकिन एक सोद्देश्यता या पाठकीय द्रष्टि से विषय वैविध्य का बेहद अभाव लगा |वही दो चार विषय ...जिन्हें विमर्श कहकर और अंडर लाइन यानी रेखांकित कर दिया गया और तमाम साहित्य शिल्पगत चमत्कारों और अतिरेकपूर्ण घटनाक्रम के साथ इसी के इर्द गिर्द घूमता नज़र आने लगा |क्या साहित्य की ये दिशा टीवी धारावाहिकों या फ़िल्मी लोकप्रियता के प्रभाव का परिणाम है?हमारे यहाँ कहानियों का इतना सीमित विषयगत दायरा क्यूँ है ? जब साहित्य समाज ,परिवेश,दुनिया,जीवन, म्रत्यु ,दर्शन जैसी सैंकड़ों विविधताओं की पड़ताल कर सकता है (कालजयी साहित्य इसका साक्ष्य है )फिर सिर्फ गिने चुने विषय ही क्यूँ ?साहित्यिक परिद्रश्य पटल पर दर्शन,ह्यूमेन सायकोलोजी ,या चाइल्ड सायकोलोजी , बाल मजदूर, वृद्धावस्था या ओल्ड एज होम की बढ़ती तादादें और वहां रहने वाले वृद्धों की कहानियाँ ,पर्यावरण ,खेल ,शिक्षा आदि क्यूँ नहीं ?पंकज विष्ट,संजीव , रस्किन बोंड ,मन्नू भंडारी ,निर्मल वर्मा आदि जैसे हिन्दी के कुछ उत्कृष्ट रचनाकारों ने हालाकि लीक से अलग हटकर कुछ विषयों का चुनाव किया है जो सराहनीय और आशान्वित करने वाला है लेकिन समकालीन बहुसंख्यक रचनाएं अभी कुछ ख़ास विषयों पर ही लिखी जा रही हैं जिनमे जटिल यथार्थवादी समस्याएं व् पीडाएं प्रमुखता में हैं और उनके समाधान या सकारात्मक भविष्य की और यहाँ कुछ कम तरजीह दी जा रही है |कहीं सामाजिक ,राजनैतिक आर्थिक आदि विसंगतियों व् अराजकताओं को भोगते हुए हम नकारात्मक और हताश तो नहीं होते जा रहे ? मारियो वर्गास ल्योसा का कथन यहाँ प्रासंगिक लगता है ‘’मैंने एक ऐसे समान्तर जीवन का निर्माण किया जहाँ हम बुरे वक़्त में शरण ले सकते हैं |जिससे हम असाधारण को सामान्य और साधारण को विलक्षण बना सकते हैं |’’