2 दिसंबर 2011

अंधेरों के खिलाफ


मजदूरों
दीवारें पोतने वालों ,मैला ढोने वालों
रद्दी,सामान ,सब्जी ठेलों वालों
पत्थर तोड़ने वालों,कारीगरों  
कभी तो उठाओ झुकी गर्दन
सीधी करो पीठ ,कि तुम्हे भी हक है
छाती तानकर चलने का ,
माना ,कि वो उम्र को पोसते  हैं
कब्र तक ,
कि उम्र भी भूल जाती है गिनती
चलते चलते अपनी,
खूब आते हैं ये हुनर उनकों दगा देने के
पर वो जो कर रहे हैं तुम्हारी उम्र का सौदा
महल खड़े कर रहे हैं तुम्हारे सपनों की ज़मीन पर
हक जता रहे हैं तुम्हारी देह पर जो
आत्महत्या पर भींच रहे हैं मुट्ठियाँ और दांत
भूख की आग पर सेंक रहे हैं रोटियां
 जमा कर रहे हैं पीढ़ियों का भविष्य
 विदेशी बैंकों में  
अब भी वक़्त है इतिहास को नकारने का
अभी वक़्त है वक़्त को खारिज करने का
एक नई पगडंडी खींचने का
स्वप्न देखते हुए पीढ़ियों के राजमार्ग का ,जहाँ  
तुम्हारी मशाल की लौ में
फीके पड़ जायेंगे झाड़फानूस   
गढे जायेंगे तब नए अर्थ रोशनी के
अंधेरों के खिलाफ ,

12 टिप्‍पणियां:

  1. आहवान करती सुन्दर प्रेरक रचना………बधाई।

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  2. सुन्दर और भावपूर्ण रचना, बधाई.

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  3. देश के हालातों पर तीखा प्रहार करती अच्छी अभिव्यक्ति

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  4. संगीत जी बहुत शुक्रिया ..आपको अच्छी लगी कविता

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  5. आपके आक्रोश ने तो संगीता जी की हलचल में भी तूफ़ान ला दिया है शायद.तभी तो उड़कर आपकी पोस्ट पर आ गया हूँ.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है,वंदना जी.
    आपके ब्लॉग का अनुसरण कर रहा हूँ.
    आप भी मेरे ब्लॉग का अनुसरण कर अनुग्रहित कीजियेगा.

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  6. आप सभी को कविता अच्छी लगी ,लिखना सार्थक हुआ ....राकेश जी आभारी हूँ आपकी ,इस ब्लॉग का अनुसरण करने के लिए....धन्यवाद

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