15 दिसंबर 2011

पहचान-पत्र



मुझे ,
मेरा ‘’होना’’ याद दिलाता हैं
मेरा पहचान पत्र |
क्या भरोसा नहीं मुझे ,कि मै वही हूँ
जो कल थी ,या उससे पहले !
क्या बदलती हूँ मै हर दिन हर पल ?
जो गले में लटकाए फिरती हूँ
इसे नुमाइश की तरह ?
उन्हें यकीं क्यूँ नहीं कि
मै वही हूँ  
जो इस कार्ड पे चस्पा हैं ?
मेरे ‘’मै ’’होने का भरोसा
वो पाते हैं कार्ड की तस्वीर को देखकर
घूरकर देखते हैं मुझे अपनी आँखों की
सुरक्षात्मक सच्चाइयों से  इस क़दर  ,
कि खुद की शराफत पे शक होने लगता है मुझे |
यदि लगा दूँ मै इसमें अपने बचपन की कोई तस्वीर
खेलते हुए फुटबॉल या पकड़ते हुए तितली
तब क्या ‘’मै’’ मै ना रहूंगी?
जब मेरा नाम ‘ये’ ना होकर ‘वो ‘हुआ करता था
अब तो कितनी परतें जम गईं हैं चेहरे पर
घर का ,कॉलेज का और बाजार का चेहरा  
कितनी गिरह नामों में ?
दीदी,डार्लिंग,बिटिया,अंजू,मौसी ,बुआ वगेरा
असली नाम बचा ही कहाँ?
ना चेहरा...
इन परतों को हटाकर अपना मूल चेहरा दिखाऊँ  
जो बचपन में था ,बिंदास खिला हुआ, भोला
तो क्या यात्रा नहीं करने दोगे मुझे जहाज़ में ?
ना प्रवेश होटल में ?
ना मेरे ऑफिस में?
क्या इतने आशंकित हो चुके हो तुम ,
सच्चाइयों  से ?
कि कागजों से पूछते हो   
मेरे होने का सबूत  ?
क्या नहीं है इसकी संभावना भविष्य में कभी
 कि अपने होने की पहचान ,
कार्ड से दिखाते २
मै खुद भूल जाऊं खुद की  पहचान
और पता देखकर पहुंचूं अपने घर या
फोटो देखकर जानूं अपना नाम?

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