मन की दीवारों को नकारना था ,
चेहरों से परतों का खुद ब खुद उघड़ते जाना
हर पर्त के बीच टंका था एक युग |
राख भरी आँखों से
देख पाना सबसे प्रगाढ़ प्रेम
सबसे प्राचीन भाषा में
जब भाषा का अर्थ मौन रहा होगा
पत्थर की मूर्तियों में वो तरल भंगिमाएं
धूल जम चुकी थी जिस पर
मृत शब्दों की विस्मृति सी
किस सदी की मुहर रही होगी ,पता नहीं
पर प्रेम का एक उद्दात्त छंद
क्षितिज पर तिर्यक चाँद सा
पलाश के दहकते जंगल सा
बीते समय की उपस्थिति सा
प्रेम .....
वाह प्रेम को जितना परिभाषित करो उतना ही वृहत होता जाता है।
जवाब देंहटाएंbehtareen prastuti.
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद वंदना जी अनामिका जी
जवाब देंहटाएंनए विम्ब, नए प्रतीकों से सजी प्रेम को नए ढंग से परिभाषित करती रचना जो काव्य फलक का विस्तार करती है. आभार
जवाब देंहटाएंWAAAAH.....
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया तिवारी जी एवं रंजना जी इस प्रोत्साहन के लिए
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