25 अक्तूबर 2011

katranen..


-- बहुत पहले लगता था,कि जहाँ देखो लोग या तो बस बोले जा रहे हैं बेरुके ,या फिर भागे जा रहे हैं ,क्यूँ ?कहाँ ?पता  नहीं ...शायद ये ठीक से वो भी नहीं जानते |क्या वो सचमुच वहीँ जा रहे होते थे  जहाँ वो जाना चाहते थे  ?क्या मस्तिष्क, देह और परिस्थितियों का अनुपालन उतनी ही शिद्दत उतनी ही मुस्तैदी से करता  है,जितनी हम उससे अपेक्षा करते हैं ? शायद नहीं ..|.दुनियां की तमाम विसंगतियां भावों का सर्जन ....देह,मन और मस्तिष्क की इन्ही बेताल बेमेल लयों  से फूटता  हैं| स्म्रतियां बनाम अतीत मनुष्य की चेतना  से गीली मिट्टी की तरह चिपके रहते हैं ताजिंदगी  |,हम जगहों से भाग सकते हैं ,प्रकृति के आगोश में छिप सकते हैं,ज़िन्दगी के जिस्म में गहरे छिपी खुशियों को कुरेद कर कुछ क्षण आत्म मुग्ध हो सकते हैं , लेकिन क्या अपने साये से दूर हो सकते हैं?दुनिया के तमाम दर्शनीय स्थानों,पर्यटन स्थलों , कलाओं,साहित्य ,यायावरी,आदि का अस्तित्व इसी नियति  का  कंपनसेशन ही है|  हमारे ऋषि मुनियों ने मौन को जिसका आधुनिक तर्जुमा  मेडिटेशन है को बहुत महत्त्व दिया है...लेकिन क्या मौन ,हमारे अंतर्मन के झंझावातों से मुक्ति का उपाय हो सकता है?यदि ऐसा होता तो आज मानसिक व्याधियां,अपराध,जुगुप्साएं समाप्त  नहीं हो गई होतीं धरती से?पच्चीस फी सदी चैनलों को योगा ,उपदेशों,प्रवचनों,की कक्षाओं की ज़रूरत होती?|मैं इन दिनों एशिया के एक बेहद खुबसूरत और संपन्न देश में हूं ,जहाँ ज़िन्दगी  के सिर्फ दो ही  अर्थ हैं ...एक फुल मौज मस्ती,जिसकी उम्र सीमा भी है,और दुसरे ,उदास  चेहरों  पर तिरस्कार और अवसाद की  झुर्रियों  से  लिपिबद्ध  गहन अवसाद और विरक्ति की मौन भाषा  |आज दिवाली है...ढेरों सन्देश बिखरे हैं शुभकामनाओं के ..अच्छा लग रहा है ...ये छोटी छोटी खुशियाँ ही तो हैं जो ज़िन्दगी को जिंदा रखे हुए हैं !....चलिए हम साथ बंटते हैं ये खुशियाँ ,,,,दिवाली मुबारक आप सभी दोस्तों को ...:)

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