विकल्प
मैं आजकल जब एक
कहानी लिखना शुरू करती हूँ
स्त्री की जगह
अजीबोगरीब शब्द लिख जाती हूँ
जैसे इंसान ,जैसे हवा
...जैसे बारिश ..जैसे ...धूप जैसे
पक्षी ....
देखती हूँ लिखा हुआ
कहीं भी पिंजरा ,ज़ख्म ,ज़ंजीर,
आंसू जैसे शब्द
लगा देती हूँ उन पर
काली स्याही से क्रॉस
या ढँक देती हूँ
‘’वाईटनर ‘’ से
एक अवसाद की छाया
कांपती रहती है
इन शब्दों के आतंक
तले
न जाने क्यूँ अब
स्त्री को स्त्री लिखने में डरती हूँ
मेरे भीतर की स्त्री
जानती है कि
हवा पर कोई विमर्श
नहीं हो सकता
ना ही बारिश पर कोई आरोपण
लताओं व् नदियों के
उगने /बहने पर कोई
प्रश्न नहीं किये
जाते
चांदनी रोजाना अपने
मन के रथ पर बैठ
निकलती है
धूप को रौंदा नहीं
जा सकता
ना ही परछाई को
कुचला
तो क्यूँ न स्त्री
को हवा ,बारिश,धूप ,धरती
या
इंसान के नाम से
पुकारा जाए?
सार्थक सवाल उठाती शानदार रचना
जवाब देंहटाएंshukriya vandana ji
जवाब देंहटाएंखुबसूरत अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएंआभार सुषमा जी
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