‘’पाश्तीश की संस्कृति और चिंतन पर हाहाकार क्यूँ ?’’
इस भूमंडलीकरण और नवउदारवादी संस्कृति ने न सिर्फ बाज़ार और सभ्यता के मापदंड बदल दिए बल्कि जीवन के अर्थ और गुणवत्ता पर भी इस नव-विकास और विचारशील संस्कृति का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा है इसे हम बीस पचास बरस पूर्व से अब तक के तुलनात्मक अध्ययन से भली प्रकार देख और जान सकते हैं |शिक्षा ,समाज ,साहित्य, फ़िल्में ,राजनीति,दर्शन ,लोक ,बाज़ार ,विपणन आदि के अर्थ और औचित्य बदल चुके हैं |यदि हम इनमे से सिर्फ एक को लें साहित्य जो न तो पुराने खरे सोने से मुक्त हो पा रहा है और ना नए की उथली सोच और स्वरुप से संतुष्ट इसके कुछ गंभीर कारन अवश्य होंगे |क्या वजह है की आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ,हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर महादेवी वर्मा और अज्ञेय तक ने अपना सम्पूर्ण जीवन और ज्ञान साहित्य को समर्पित करते हुए नई पीढी के हाथ में मशाल सौंपी थी लेकिन उस मशाल की रोशनी अब फीकी क्यूँ हो रही है?संभवतः कुछ ज्ञानी /विद्वान् ऐसा ना मानते हों और वो साहित्य के सार्थक भविष्य से आश्वस्त हों लेकिन यदि ऐसा है तो फिर साहित्य जो लेखक ,पाठक ,आलोचक,चिन्तक,संपादक,प्रकाशक, आदि से मिलकर अपना अस्तित्व गढ़ता है इनमे से कोई एक भी संतुष्ट नज़र क्यूँ नहीं आता ? ये असंतुष्टि उस लेखिकीय असंतुष्टि से अलग है जो हिन्दी साहित्य के कालजयी की श्रेणी में रखे गए रचनाकारों की असहमति बनी |प्रेमचंद ,रेनू,शरतचंद से लेकर मन्नू भंडारी ,चित्रा मुद्गल,मृदुला गर्ग .कृष्ण सोबती आदि तक|उनकी असंतुष्टि या असहमति साहित्य के भविष्य,उसके स्वरुप और उसकी शास्त्रीयता के पक्ष में थी | कहानी कहानी होती थी कविता कविता और आलोचना एक पूर्ण आलोचना निष्पक्ष और संतुलित |यद्यपि अपवाद मनुष्य के साथ उसके अस्तित्व की आख़िरी सांस तक रहेंगे और तब भी थे लेकिन आज इन अपवादों ने निहायत व्यक्तिगत रूप गढ़ लिया है साहित्य और साहित्यिक सरोकार न रहकर साहित्य और वैयक्तिक आक्षेप के स्तर तक आलोचना उतर आई है |व्यंग का मतलब व्यक्तिगत आक्षेप और कुंठाओं का निष्कासन भा कहीं कहीं दिखाई देता है रह
साहित्य हो या कलाएं हर युग में सहमती –असहमति .तर्क-वितर्क उनके साथ उंगली पकडे चली है |
हर सदी के अपनी समस्याएं होती हैं ,उनका प्रतिकार और उन्हें दूर करने की कोशिशें भी |राजनैतिक अस्थिरता समाजिक मूल्य ,आर्थिक सोच और कई समस्याओं की जनक होती है और दुर्भाग्यवश भारत ने इस अस्थिरता के परिवेश और दैत्य को बहुत झेला है आज भी झेल रहा है |एक और तथ्य है जिसने हिन्दी साहित्य को अत्यधिक प्रभावित किया है वो है बहुसंस्कृति की परम्परा |
और इसी बहुसांस्क्रतिकता (मल्टीकल्चर्लिज्म) का भी यहाँ के साहित्यिक संस्कृति में एक बड़ा योगदान है तो दूसरी और एक विघटनकारी मानसिकता का भी यही उपक्रम माना जा सकता है |
शमशेर चाँद का मुहं टेड़ा है की भूमिका में कहते हैं ‘’मुक्तिबोध युग के उस चेहरे की तलाश करते हैं जो आज के इतिहास के मलबे के नीचे दब गया है ,मगर मर नहीं गया है (शमशेर-चाँद का मुहं टेढ़ा है’’भूमिका )|आजकल हिन्दी साहित्य में पश्चिम के प्रभाव की चर्चा है |यद्यपि ये प्रभाव कोई नया नहीं है |यदि परिवेश के स्तर पर पाश्चात्य प्रभाव देखा जाये तो निर्मल वर्मा का नाम सबसे पहले आयेगा |उनकी कहानी ‘’लन्दन की एक रात ‘’और जलती झाडी इसका साक्षात् उदाहरन हैं इसके अलावा उषा प्रियंवदा की ‘’मछलियाँ’’टूटे हुए ,कृष्ण बलदेव वैद की कहानी ‘’शेडोज़’’आदि हैं |
पाश्चात्य प्रभाव का विरोध करने से पूर्व ‘’साहित्य क्यूँ और किसके लिए ‘’ इस प्रश्न पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा |क्या साहित्य मनोरंजन है?क्या साहित्य का औचित्य मनुष्य में मनुष्यता की भावना का संचार करना या उसे समाज ,देश,मनुष्य मात्र के प्रति जागरूक करना है?क्या साहित्य एक जाती विशेष ,एक समूह विशेष,एक भाषा विशेष एक देश विशेष ,अथवा भूमंडलीय स्तर तक मनुष्य को प्रभावित करने का एक माध्यम है? स्वाभाविक है की यदि साहित्य इतने स्तरों तक मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखता है तो उतने ही स्तरों पर उससे सहमत असहमत होने वाले लोग भी होंगे और उतने ही विचार? यदि साहित्य वैश्विक स्तर पर समाज को आंदोलित,प्रभावित करने का माद्दा रखता है तो फिर परिवेश के स्तर पर उसका विरोध क्यूँ ?पूरे विश्व में विदेशी साहित्य अनुवादित रूप में पढ़ा जाना और पसंद किया जाना क्या इसका प्रबल साक्ष्य नहीं ?यदि हम किसी कहानी ,उपन्यास या कविता के माध्यम से किसी दुसरे देश की संस्कृति,रीत रिवाज या मानसिकता को जान पायें तो इसमें क्या बुरा है?यदि किसी रचना पर पाश्चात्य प्रभाव रचना के शिल्प,संवेदना या चिंतन के स्तर प् होता है तो भी मनुष्य और सामाजिक प्राणी होने के नाते ये भी उतना ही महत्वपूर्ण क्यूँ नहीं है तब जबकि भौगोलिक अवस्थाएं ,भाषा, रीति रिवाज,कायदे क़ानून अलग हो तो भी दुःख ,पीढा,खुशी का रूप पूरे विश्व में अनुभूति के लिहाज से एक होता है? लेकिन साहित्य में उल्टा हो रहा है हम इन सबका विरोध तो कर रहे हैं लेकिन पाश्चात्य फैशन ,खुलापन (जो कुछ देशों में मान्य है पर यहाँ नहीं )का साहित्य में खुलकर स्तेमाल कर रहे हैं ,|देश-देश के बीच जो संस्कृतिक ,वैचारिक या नैतिक बुनावट के फर्क की लकीर को हम अपनी कहानियों उपन्यासों में मिटा रहे हैं वो भी स्त्री दशा या विमर्श के नाम पर पाश्चात्य प्रभाव तो इसे मानना चाहिए ,जिसे नज़रंदाज़ किया जा रहा है |हिन्दुस्तान की संस्कृति में तो कभी इतना खुलापन और आज़ादी नहीं रही विशेषतौर पर स्त्री लेखन में ? चाहे कला हो या साहित्य ये प्रयोगधर्मिता का युग है और नए नए प्रयोग होना निस्संदेह किसी भी विधा के लिए शुभ संकेत है |कई बार कहानियों के शिल्प पर पाश्चात्य प्रभाव का दोष भी लगाया जाता है |आज जब दुनियां सिमट रही है लोग,समस्याएं,ख़बरें वैशिक धरातल पर नज़दीक आ रहे हैं और हम बाकायदा उन्हें कुछ अर्थों में अपना भी रहे हैं तो यदि कहानी के शिल्प में पाश्चात्य प्रभाव दिखाई देता है तो उसे प्रयोग की द्रष्टि से क्यूँ नहीं स्वीकार किया जाता ?कहानी उपन्यास के कुछ विषय सार्वभौमिक होते हैं जैसे भूख,अन्याय या म्रत्यु का विषय |म्रत्यु को भारत सहित पूरी दुनिया के तमाम लेखकों ने विषय बनाया ..हेमिंग्वे ,कामू,मार्खेज़ या फिर हिन्दी के लेखक भीष्म साहनी ,निर्मल वर्मा,श्रीकांत वर्मा ऐसे और भी उत्क्रष्ट कोटि के लेखक हैं |म्रत्यु एक अवस्था है एक स्थिति इसको शिल्प या चिन्तन की द्रष्टि से भले ही अलग कर लें लेकिन संवेदना के स्तर पर आखिर कितना फासला रख सकते हैं ?(प्रथम भाग)
साहित्य हो या कलाएं हर युग में सहमती –असहमति .तर्क-वितर्क उनके साथ उंगली पकडे चली है |
हर सदी के अपनी समस्याएं होती हैं ,उनका प्रतिकार और उन्हें दूर करने की कोशिशें भी |राजनैतिक अस्थिरता समाजिक मूल्य ,आर्थिक सोच और कई समस्याओं की जनक होती है और दुर्भाग्यवश भारत ने इस अस्थिरता के परिवेश और दैत्य को बहुत झेला है आज भी झेल रहा है |एक और तथ्य है जिसने हिन्दी साहित्य को अत्यधिक प्रभावित किया है वो है बहुसंस्कृति की परम्परा |
और इसी बहुसांस्क्रतिकता (मल्टीकल्चर्लिज्म) का भी यहाँ के साहित्यिक संस्कृति में एक बड़ा योगदान है तो दूसरी और एक विघटनकारी मानसिकता का भी यही उपक्रम माना जा सकता है |
शमशेर चाँद का मुहं टेड़ा है की भूमिका में कहते हैं ‘’मुक्तिबोध युग के उस चेहरे की तलाश करते हैं जो आज के इतिहास के मलबे के नीचे दब गया है ,मगर मर नहीं गया है (शमशेर-चाँद का मुहं टेढ़ा है’’भूमिका )|आजकल हिन्दी साहित्य में पश्चिम के प्रभाव की चर्चा है |यद्यपि ये प्रभाव कोई नया नहीं है |यदि परिवेश के स्तर पर पाश्चात्य प्रभाव देखा जाये तो निर्मल वर्मा का नाम सबसे पहले आयेगा |उनकी कहानी ‘’लन्दन की एक रात ‘’और जलती झाडी इसका साक्षात् उदाहरन हैं इसके अलावा उषा प्रियंवदा की ‘’मछलियाँ’’टूटे हुए ,कृष्ण बलदेव वैद की कहानी ‘’शेडोज़’’आदि हैं |
पाश्चात्य प्रभाव का विरोध करने से पूर्व ‘’साहित्य क्यूँ और किसके लिए ‘’ इस प्रश्न पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा |क्या साहित्य मनोरंजन है?क्या साहित्य का औचित्य मनुष्य में मनुष्यता की भावना का संचार करना या उसे समाज ,देश,मनुष्य मात्र के प्रति जागरूक करना है?क्या साहित्य एक जाती विशेष ,एक समूह विशेष,एक भाषा विशेष एक देश विशेष ,अथवा भूमंडलीय स्तर तक मनुष्य को प्रभावित करने का एक माध्यम है? स्वाभाविक है की यदि साहित्य इतने स्तरों तक मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखता है तो उतने ही स्तरों पर उससे सहमत असहमत होने वाले लोग भी होंगे और उतने ही विचार? यदि साहित्य वैश्विक स्तर पर समाज को आंदोलित,प्रभावित करने का माद्दा रखता है तो फिर परिवेश के स्तर पर उसका विरोध क्यूँ ?पूरे विश्व में विदेशी साहित्य अनुवादित रूप में पढ़ा जाना और पसंद किया जाना क्या इसका प्रबल साक्ष्य नहीं ?यदि हम किसी कहानी ,उपन्यास या कविता के माध्यम से किसी दुसरे देश की संस्कृति,रीत रिवाज या मानसिकता को जान पायें तो इसमें क्या बुरा है?यदि किसी रचना पर पाश्चात्य प्रभाव रचना के शिल्प,संवेदना या चिंतन के स्तर प् होता है तो भी मनुष्य और सामाजिक प्राणी होने के नाते ये भी उतना ही महत्वपूर्ण क्यूँ नहीं है तब जबकि भौगोलिक अवस्थाएं ,भाषा, रीति रिवाज,कायदे क़ानून अलग हो तो भी दुःख ,पीढा,खुशी का रूप पूरे विश्व में अनुभूति के लिहाज से एक होता है? लेकिन साहित्य में उल्टा हो रहा है हम इन सबका विरोध तो कर रहे हैं लेकिन पाश्चात्य फैशन ,खुलापन (जो कुछ देशों में मान्य है पर यहाँ नहीं )का साहित्य में खुलकर स्तेमाल कर रहे हैं ,|देश-देश के बीच जो संस्कृतिक ,वैचारिक या नैतिक बुनावट के फर्क की लकीर को हम अपनी कहानियों उपन्यासों में मिटा रहे हैं वो भी स्त्री दशा या विमर्श के नाम पर पाश्चात्य प्रभाव तो इसे मानना चाहिए ,जिसे नज़रंदाज़ किया जा रहा है |हिन्दुस्तान की संस्कृति में तो कभी इतना खुलापन और आज़ादी नहीं रही विशेषतौर पर स्त्री लेखन में ? चाहे कला हो या साहित्य ये प्रयोगधर्मिता का युग है और नए नए प्रयोग होना निस्संदेह किसी भी विधा के लिए शुभ संकेत है |कई बार कहानियों के शिल्प पर पाश्चात्य प्रभाव का दोष भी लगाया जाता है |आज जब दुनियां सिमट रही है लोग,समस्याएं,ख़बरें वैशिक धरातल पर नज़दीक आ रहे हैं और हम बाकायदा उन्हें कुछ अर्थों में अपना भी रहे हैं तो यदि कहानी के शिल्प में पाश्चात्य प्रभाव दिखाई देता है तो उसे प्रयोग की द्रष्टि से क्यूँ नहीं स्वीकार किया जाता ?कहानी उपन्यास के कुछ विषय सार्वभौमिक होते हैं जैसे भूख,अन्याय या म्रत्यु का विषय |म्रत्यु को भारत सहित पूरी दुनिया के तमाम लेखकों ने विषय बनाया ..हेमिंग्वे ,कामू,मार्खेज़ या फिर हिन्दी के लेखक भीष्म साहनी ,निर्मल वर्मा,श्रीकांत वर्मा ऐसे और भी उत्क्रष्ट कोटि के लेखक हैं |म्रत्यु एक अवस्था है एक स्थिति इसको शिल्प या चिन्तन की द्रष्टि से भले ही अलग कर लें लेकिन संवेदना के स्तर पर आखिर कितना फासला रख सकते हैं ?(प्रथम भाग)
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