7 दिसंबर 2011

कहीं ये ........


एक बाल जो उड़ता है सिर का
तलवों तक होती है झुनझुनी
जड़ कहना आलोचना है उसकी
सच ये है कि सूरज की आदत है उसे  
कभी नहाती है वो ‘वाहों’ से
‘आहें’ अलबत्ता हवा में गुम-सी
खून का रंग यहाँ गाढा है कुछ ज्यादा
पसीनों के रंग जिनमे फीके हैं  
पानी हो रहा है कम ,कहते हैं यहाँ लोग
और सूखा अक्सर आँखों में पड़ता है
हवाएं बहती हैं यहीं से शुरू होकर
दिशाएं पतझड़ों में खुलती हैं
मेलों जलसों की चकाचौंध है इसमें
सुर्ख पर्दों से झांकते हैं अँधेरे
‘वाहों’ की रही आदत जिनको
‘आहों’ में बसर की जिंदगी उनने
‘’पेशे खिदमत’’का वक़्त हुआ गुज़रा
‘’इरशाद ‘’ने भी दम तोडा है
अपने चिराग खुद पेश करते हैं वो
नज़रों में हुक्मरानों की
नज़रानों से जिन्हें था परहेज़ बहुत
ना जाने क्यूँ छिप के निकल जाते हैं?
 देह, ,मेले ,जलसे कहानियाँ रोशन  
कविता थक के पनाह पाती है
इमारतों में गूंजती हैं नज्में अब भी
गली गुलज़ार हैं फूलों की महक से अब भी
कभी बनती है बपौती अथक कवियों की ये
बहती सड़कों पे भागती जिंदगी बेदम
कहीं ये दिल्ली तो नहीं?

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