10 नवंबर 2012


‘’आलोचना करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है कि आदमी स्वयं किसी निश्चित सत्य में विश्वास करे ‘’...गोर्की
पिछले दिनों वी एस नायपाल प्रकरण अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि गिरीश कारनाड ने एक और विवादास्पद टिप्पणी कर दी गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर को ‘’दोयम दर्जे का नाटककार ‘’कहकर |ख़बरों से लेकर फेसबुक तक पर खलबली कि ये कैसे हो सकता है |कुछ पाठकों ने सहमते हुए गिरीश जी की बात को ओथेंटिक मानने की हिम्मत दिखाई लेकिन ‘’आस्थावानों ‘’ने बकायदा उन्हें (बगैर किसी पुख्ता दलील के )हडका दिया |आइये अब इस प्रकरण पर भी बात की जाये |गुरुवार रवीन्द्रनाथ टैगोर निस्संदेह एक बहुआयामी और अद्भुत व्यक्तित्व के धनी रहे एक ऐसा व्यक्तित्व जो ना सिर्फ बहुत श्रेष्ठ कवि बल्कि उपन्यास कार ,वक्ता,नाटककार,समालोचक,दार्शनिक,लेखक,व अध्यापक रहा |एक ही व्यक्ति में इतनी प्रतिभा सचमुच अद्भुत व अतुलनीय |गुरुदेव को सन १९१३ में विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरूस्कार नोबेल पुरूस्कार से नवाजा गया  उल्लेखनीय है कि बाद में २००१ में साहित्य का नोबेल पुरूस्कार तथाकथित भारतीय मूल के वी एस नायपाल को मिला |निस्संदेह इन दो विभूतियों के प्रति भारत कृतकृत्य हुआ |नोबेल पुरूस्कार प्राप्ति के वक़्त जो पंक्तियाँ पुरूस्कार भाषण में कही गईं वो थीं ‘’टैगोर की काव्य रचना की आभ्यांतरिक गहराई और उच्च उद्देश्य ऐसे हैं तथा प्राच्य विचारों को इन्होने पाश्चात्य वर्णन शैली में ऐसी सुंदरता और नवीनता के साथ व्यक्त किया है कि वे वास्तव में पुरूस्कार पाने के अधिकारी हैं ‘’| संभवतः किसी भी कवि के लिए उसकी श्रेष्ठता तथा उत्कृष्टता का इससे बड़ा प्रमाण नहीं हो सकता |’’नोबेल पुरूस्कार उन्हें ‘’बंगाल की गीता ‘’ कही जाने वाली पुस्तक गीतांजलि पर ही मिला जिसकी अनेक विदेशी भाषाओँ में अनुवाद हुए |इसके अतिरिक्त उनकी अंग्रेज़ी कहानियों का संग्रह लन्दन के एक प्रकाशक ने निकाला |(मैकमिलन ‘से भी उनके कुछ उपन्यास ,कहानियाँ और नाटक प्रकाशित हुए )|गौर तलब है कि बहुमुखी प्रतिभा संपन्न इस विद्वान की ख्याति विदेशों तक उनकी कविताओं के कारन अधिक हुई |तुलनात्मक द्रष्टि से उन्होंने नाटक कम लिखे |उनके नाटकों में मुख्य हैं ‘नलिनी’,’मायर खेल’,मानसी,’राजा ओ रानी’,चित्रांगदा आदि |इसके अतिरिक्त उन्होंने बुद्ध पर आधारित एक नाटक नातीर पूजा (न्रात्यान्गना की पूजा ) भी लिखा था |
कोई भी साहित्य या कला अपने समय से अलग होकर नहीं जी सकती |अर्थात उसमे तात्कालीन समाज राजनीती,दर्शन आदि का समावेश एक बहुत सामान्य और सहज घटना है लेकिन ये कतई आवश्यक नहीं कि उसी रचना को पचास साठ वर्ष भी उतना ही सराहा जाये !जुबैदा,कानन कौशल सुरैया जैसी सिने अभिनेत्रियों की फ़िल्में उस वक़्त हाउस फुल रहती थीं क्या आज उनसे ये अपेक्षा की जा सकती है?या नाटक को ही देखें तो १९४७ के आसपास लिखे और खेले गए नाटकों की उस समय धूम रहती थी |आगा हश्र कश्मीरी,से लेकर स्वर्गीय कर्नल गुप्ते तक या एक के हंगल, उत्पल दत्त,भीष्म साहनी ,प्रथ्वी राज कपूर,सोहराब मोदी जैसे समर्पित लेखक/कलाकारों जिनमे से कुछ इप्टा के फाउन्दर्स में भी गिने जाते हैं के द्वारा लिखे या खेले गए तत्कालीन नाटक जो उस वक़्त काफी पसंद किये गए थे बल्कि कुछ पर बेहद लोकप्रिय होने के मद्दे नज़र ‘’देशद्रोही ‘’होने का दोष लगा प्रतिबंधित भी कर दिया गया था ...लेकिन आज हम आज़ाद हिन्दुस्तान में सांस ले रहे हैं स्थितियां बदल चुकी हैं समस्याओं,विकास,आधुनिकता,विचारधारों ,राजनीति,सामाजिक व्यवस्थाएं सभी के रूप और अर्थ बदल चुके हैं जो कालगत परिवर्तन के मद्दे नज़र स्वाभाविक है |तकनीक,कथ्य ,शिल्प,मंच सब का स्वरुप बदल चुका है |जहाँ तक टैगोर के नाटकों का प्रश्न है उनके नाटक स्त्री करुना,यानी दुखांत हुआ करते थे (नलिनी और मायर खेल निर्धन गृहस्थों के जीवन पर आधारित नाटक थे वहीं चित्रांगदा नाटक के लिए कुछ समीक्षकों का मत था कि सौंदर्य की द्रष्टि से इतना सुन्दर नाटक नहीं लिखा गया,लेकिन कुछ समीक्षकों ने इसके आलोचना करते हुए लिखा कि इस नाटक का सौंदर्य वर्णन भारतीय आदर्शों के अनुरूप नहीं इस द्रष्टि से ये हेय है ‘’ 

तथ्य केवल यही है कि लगभग सौ वर्षों के इस विशाल अंतराल के बीच दुनियां में तमाम परिवर्तन हुए भारतीय समाज यहाँ की राजनैतिक,सांस्कृतिक परिस्थितियां और परिवेश बदले |सोवियत संघ के विघटन का प्रभाव भी कला और साहित्य पर पड़ा |भूमंडली करण और बाजार वाद ने समाज परिवार सोच आदर्शों के मायने ही बदल डाले |स्वाभाविकतः साहित्य के नए मानदंड व मापदंड तय किये गए |गिरीश कारनाड एक समर्पित ,एवं प्रतिभावान नाटककार,लेखक निर्देशक हैं इसमें कोई शक नहीं | बचपन में मैंने उनका लिखा नाटक हयवदन देखा था जिसमे कलाकार ओम् शिवपुरी व सुरेखा सीकरी मुख्य पात्रों में थे |मेरा सौभाग्य है कि बाद में मुझे हयवदन व उनके लिखे एतिहासिक नाटक ‘’तुगलक’’(निर्देशक बी एम शाह भूतपूर्व निर्देशक राष्ट्रीय नाट्य विद्ध्यालय देहली)के निर्देशन में स्त्री मुख्य पात्र करने का सुअवसर प्राप्त हुआ |नाटक तुगलकजितने बार पढ़ा लेखक की श्रेष्ठता और बारीकियों का लोहा माना |
 बंगाल कला साहित्य की श्रेष्ठता में सर्वोपर है निस्संदेह |शरत चंद  ,बंकिम चंद ,अभिनेता हरेंद नाथ चट्टोपाध्याय ,उत्पल दत्त जैसे मूर्धन्य लेखक ,कलाकार हुए हैं |उत्पल दत्त का तो कोई सानी ही नहीं (मुझे उनके नाटक ‘’टीनेर तलवार’’में अभिनय करने का अवसर मिला हास्य,त्रासदी,व्यंग,गीत संगीत से परिपूर्ण ऐसा संतुलन मैंने ब्रेख्त के नाटक कॉकेशियन चौक सर्किल के अलावा किसी में नहीं देखा |)
बहरहाल इस विवाद में दो तथ्य महत्वपूर्ण है पहला कारनाड ने टैगोर को उनके सम्पूर्ण साहित्य के लिए  नहीं वरन सिर्फ नाटक में औसत माना ,अलावा इसके ये उस कलाकार का वक्तव्य है जो स्वयं लंबे समय से नाट्य लेखन व अभिनय के लिए समर्पित है और कला क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है उसके व्यक्तिगत विचारों को विवादों में घसीटते हुए खारिज नहीं किया जा सकता |दूसरे ,टैगोर को पूजनीय का दर्जा देने वालों (विशेषतौर पर उस महानगर विशेष से ताल्लुक रखने वालों )ने इस मसले को आस्थाओं पर प्रहार माना जो आज के युग व परिस्थितियों में निहायत दकियानूसी विचार है | जो लोग बगैर किसी तर्क के अंध आस्था के तहत ऐसा मान रहे हैं उनके लिए सिर्फ एक ही उद्धरण याद आता है सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक गेलीलियों ,कोपर्निकस और उनके युवा शिष्य ब्रूनो का जिन्हें बाइबिल के इस सत्य को कि ‘’सूर्य प्रथ्वी का चक्कर लगता है ‘’नकार कर ये सत्य उजागर व घोषित करने कि ‘’प्रथ्वी सूर्य का चक्कर लगती है’’अंध विश्वासी और आस्थावान मिश् नारियों ने देश निकाला दे दिया था ,नतीजतन  गेलीलियो को बहत्तर वर्ष की उम्र तक कचहरी के चक्कर लगाने पड़े थे वहीं ब्रूनो और उसकी प्रेमिका को उस ‘’असत्य’ सत्य को नकार देने के अपराध में चौराहे पर जिंदा जला दिया गया था |हर अति अपने चरम में आखिरकार अपनी ऊष्मा खो देती है चाहे वो आस्थाओं से सम्बंधित ही क्यूँ ना हों क्यूँ कि आस्थाएं कहीं ना कहीं अन्धं विश्वास की पडौसी ही होती हैं |
वन्दना
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