17 मई 2013

कहो तथागत


मै महामाया हूँ ,मै ही गौतमी,यशोधरा ,सुजाता,विशाखा ,क्षेमी और क्रशा हूँ | लेकिन ज़न्म से म्रत्यु तक अंततः मात्र एक स्त्री ...नाम तो देह के होते हैं वर्ण के नहीं ..|ज़र्ज़र देह,शव,दरिद्रता ,देखकर तुम्हे दुःख हुआ था और इनसे मुक्ति का मार्ग खोजने तुम निकल पड़े थे आधी रात में सबको सोया छोड़कर वन में |अपने कर्तव्यों को द्रष्टिपरे कर जीवन म्रत्यु का रहस्य सुलझाने और ‘अपनों’ के स्वप्नों की तमाम आशाओं  को ध्वस्त छिन्न भिन्न करके | तुमने एक व्यक्ति को देखा था जिसकी कमर झुक चुकी थी उसकी देह ज़र्ज़र हो चुकी थी जो ठीक से सांस भी नहीं ले पा रहा था ,तब तुमने अपने सारथि सौम्य से पूछा था और जब सौम्य ने बताया था कि ये एक वृद्ध पुरुष है सभी को ऐसा ही होना पड़ता है ये नियति है जीव की तब तुम स्तब्ध रह गए थे ,और फिर उसके बाद म्रत्यु,जीवन ,आयु के सत्य ,इन सबसे तुम्हारे मन में एक विरक्ति की भावना पैदा हुई थी और तुमने गृह त्याग कर दिया था |शरीर और ‘’आने जाने ‘ से मुक्ति का मार्ग खोजने निकल पड़े थे सत्य की खोज में |
 आज मै तुमसे पूछती हूँ तथागत क्या सचमुच तुम खोज पाए मुक्ति का मार्ग?यदि हाँ ,तो क्या हर मुक्ति का रास्ता विरक्ति से ही होकर गुजरता है ?और यदि ये भी सत्य है तो तो स्त्री को मुक्ति की अभिलाषा होना आपकी नियमावलियों के खिलाफ क्यूँ था?
क्या म्रत्यु और जीवन मरण के रहस्यों को वस्तुतः सुलझा पाए?क्या तुमने बयासी वर्ष की आयु तक वही सब नहीं भोगा जिसके लिए तुमने गृह त्याग कर प्रवजना ली थी ?...कि तुम्हारी सुदर्शन देह के भीतर भी एक मन तो था ही तुमने महसूस तो किया ही होगा उस अंतर्द्वंद को ...मुक्ति मार्ग और आकर्षण के मध्य के उस बहुत महीन पारदर्शी झीने आवरण को ?बावजूद ह्रदय परिवर्तन के इस मुक्ति यात्रा के मार्ग में तुम्हे कभी स्मृति आई तो आई होगी उन स्त्रियों की जो तुम्हारे जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना बनकर आईं और जिन्हें तुमने कभी अपनी मुक्ति अभियान के मार्ग में व्यवधान मानकर और कभी उन्हें महान बनाकर दूर कर दिया ?लेकिन इस दीर्घ जीवन में क्या तुम्हारे उस विरक्त और सन्यासी जीवन के विशाल आँगन में कोई एक अन्धेरा कोना इन्हीं स्त्रियों से ‘कलुषित’ नहीं रहा ?
मै तुम्हारी जीवनदायिनी ,तुम्हारी माँ महामाया.... जिसकी गोद में तुमने ऑंखें खोलीं |लेकिन सिर्फ सात दिनों के बाद मेरा तुम्हारा नाता टूट गया तब जब तुम माँ को सिर्फ दुनियां की इकलौती उस गर्माहट से पहचानते थे जो किसी भी शिशु के लिए पूरी प्रथ्वी होती है तुम्हारे शिशु रुदन और द्रष्टि ने भी तो ढूंढा होगा मुझे चारों ओर ...और निराश होकर तुमने अपनी ऑंखें झपकी होंगी उस निराशा को अपनी बरोनियों की ओट में छिपा लिया होगा! उम्र की उस नाज़ुक अवस्था में जब मिलने और खोने के अर्थ से परे उसकी स्मृति उसके अवचेतन में कहीं धंस जाती है |अपनी विमाता गौतमी के सरंक्षण में तुमने गौतम नाम पाया लेकिन तुम्हारी आत्मा कभी मुझे अपनी जन्मदात्री को विस्मृत कर पाई ?
मै यशोधरा ..तुम्हारी ब्याहता पत्नी ...तुम्हारे पुत्र की जननी |क्या कमी थी मेरी पतिव्रता भावना में ,मै बाँझ भी नहीं ना ही दायित्व हीन मै तो अविश्वसनीय भी नहीं फिर अपने सभी स्त्रियोचित उत्तरदायित्व बखूबी पूरे करने के मुझे किस बात की सज़ा दी |उर्मिला,द्रोपदी,कुंती,शकुन्तला,अहिल्या की श्रंखला में तुमने मुझे भी तो एक कड़ी बना दिया और इतिहास पुरुष बन गए ?आखिर क्यूँ ? पुरानों से लेकर राजाओं महाराजाओं  यहाँ तक कि संतों तक ने स्त्रियों की भावना को कुचलकर अपना स्वस्ति का परचम लहराया ...और महापुरुष कहलाये |लेकिन तुम उनसे अलग थे ....क्यूँ की तुम तथागत थे बुद्ध थे पार्थक्य ... तुम्हारी निर्लप्ति को भी मैंने तुम्हारी शिष्या बन शिरोधार्य किया ..लेकिन अंतत मै स्त्री ही तो थी और एक माता भी तो ?
राजकुमार सिद्धार्थ ...जब आप राजमहल से बाहर निकलते थे कुमारियाँ अपनी अट्टालिकाओं पर खडी होकर आपको निहारा करती थीं ,उस दिन जब आप शक्य कुमारों के साथ उद्यान विचरण व् जलक्रीडा कर वापस अपने महल को जा रहे थे तब मै भी अन्य कुमारियों के साथ उसी अट्टालिका पर खडी आपको अपलक निहार रही थी... आसक्त हो गई थी |हाँ मै क्रशा गौतमी ....स्मरण है आपको तथागत ?...अनायास आपकी द्रष्टि मुझ पर पडी थी और आप भी कुछ क्षण मुझे निहारते रहे थे |आप चलते चलते वहीं ठिठक कर खड़े हो गए थे |मै विक्षिप्त सी आपको अपलक निहार रही थी |अनायास आपने अपना मुक्ताहार मेरी और उछाला था मै खुशी से बौरा गई थी |मेरी आँखों में काम वेग उतर आया था ...मै आपके अंक शयन के लिए आतुर हो गई थी मै अट्टालिका से पागलों की तरह दौड़ते हुई नीचे आई थी परन्तु आपने तो मुझे वो माला गुरु स्वरुप भेंट की थी ! क्या
 विरक्ति किसी की आसक्ति के ऊपर ही राज्य करती है?

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