कल ना जाने क्यूँ अचानक
छत की ओर तेज़ी से चढ़ते कदम
लौट पड़े उल्टी दिशा में,खुद ब खुद ....!
सीढियां अपने कदम उलटे फेर
छोड़ आईं अँधेरे तहखानों तक ,
रहस्यों के खेत थे जहाँ
रात के चेहरे से मिलते जुलते
गर्भ हो या रात
फ़िक्र या, हो कोई वारदात
रहस्य अँधेरे क्यूँ ढूंढते है?
क्या उन्हें बिखरना नहीं भाता
रौशनी की तरह ?
तहखानों का वुजूद बचा हुआ है अभी
उजालों से ऊबे हुए लोगों से
बेहद गहन और संवेदनशील अभिव्यक्ति कुछ प्रश्न करती हुई।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वंदना जी
जवाब देंहटाएंtahkhano ki tarah gahrayi me sochne ko mazboor karti abhivyakti.
जवाब देंहटाएंतहखानों का वुजूद बचा हुआ है अभी
जवाब देंहटाएंउजालों से ऊबे हुए लोगों से
....गहन चिंतन से परिपूर्ण सुन्दर प्रस्तुति..
dhanywad kailash ji
जवाब देंहटाएंGahan chintan aur samvedansheel prashtuti....
जवाब देंहटाएंwelcom and thanks sureshji
जवाब देंहटाएंमैं पहली बार आप के ब्लांग में आई हूँ बहुत अच्छा लगा...आप का तह्खाना एक गहन अनुभूति लिए हुए है..सुन्दर रचना..आभार.."अभिव्यंजना" में आप का स्वागत है..
जवाब देंहटाएंहार्दिक स्वागत है आपका इस ब्लॉग पर महेश्वरी जी ! धन्यवाद
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