23 अगस्त 2011

तहखाने


कल ना जाने क्यूँ अचानक
छत की ओर तेज़ी से चढ़ते कदम
लौट पड़े उल्टी दिशा में,खुद ब खुद ....!
सीढियां अपने कदम उलटे फेर  
छोड़ आईं अँधेरे तहखानों तक ,
रहस्यों के खेत थे जहाँ
 रात के चेहरे से मिलते जुलते
 गर्भ हो या रात    
फ़िक्र या, हो कोई वारदात
रहस्य अँधेरे क्यूँ ढूंढते है?
क्या उन्हें बिखरना नहीं भाता
रौशनी की तरह ?
तहखानों का वुजूद बचा हुआ है अभी
उजालों से ऊबे हुए लोगों से

9 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद गहन और संवेदनशील अभिव्यक्ति कुछ प्रश्न करती हुई।

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  2. तहखानों का वुजूद बचा हुआ है अभी
    उजालों से ऊबे हुए लोगों से

    ....गहन चिंतन से परिपूर्ण सुन्दर प्रस्तुति..

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  3. मैं पहली बार आप के ब्लांग में आई हूँ बहुत अच्छा लगा...आप का तह्खाना एक गहन अनुभूति लिए हुए है..सुन्दर रचना..आभार.."अभिव्यंजना" में आप का स्वागत है..

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  4. हार्दिक स्वागत है आपका इस ब्लॉग पर महेश्वरी जी ! धन्यवाद

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