सपनों का वो अंतिम छोर
जहाँ खत्म होती हैं संभावनाएं
शुरू होता है वहीँ से
प्रकृति का मौन सत्य!
न बहस,न दलीलें,न विवाद
न अच्छा कहने की मोहलत
ना बुरा मानने का रोष
न इच्छाओं-सा
कुछ सार्थक
न जीवन-सा कुछ ,
निरर्थक!
न वांछित
न अवांछित!
बस होना एक
होने की तरह जैसे
सूर्य का होना
उगकर
अस्त होकर !
जैसे
एक सधे नियम सा
रात के बाद दिन
और रात का पुनः आ जाना !
वनस्पति,हवा,रौशनी ,बादल
ज़न्म-म्रत्यु
एक अटल सत्य की तरह!
अवश विवशता
''होने ''में तिरोहन की
और फिर इस ''होने
के बीच
थमते जाना शोर
एक इतिहास का !
बहुत ही गहन और चिन्तनयोग्य रचना विवशता को उभारती है।
जवाब देंहटाएंसपनों का वो अंतिम छोर
जवाब देंहटाएंजहाँ खत्म होती हैं संभावनाएं
शुरू होता है वहीँ से
प्रकृति का मौन सत्य!
बहुत सुंदरता से जीवन दर्शन की बात की ...अच्छी प्रस्तुति
विवशता को उभारती रचना |
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति जो मन की विवशता और होने की क्रिया को स्थिरता देती है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंकविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !