23 दिसंबर 2010

वंशवृक्ष


पिता
लिखा करते थे, अक्सर
न जाने क्या?
झुके–झुके ,
झुकने से पहले भी
लिखा करते थे बकायदा
मेज़ –कुर्सी पर रौब से तनकर !
आँखों में गर्व का समंदर लहराता था उनके
लिखते वक़्त!, दमकती पेशानी ...!
पर उम्र और उपियोगिता के हिसाब से
लिखने के ठिकाने और साधन सिकुड़ते रहे
देह के सिकुड़ने के एवज में !
और फिर....
फेंके जाने की मंशा लिए ,या इसी तरह की
तमाम अनुपियोगी वस्तुओं की भीड़ के बीच
उस सीलन भरी धुंधली सी कोठरी में
खुद को समेट वो 
चले आये अपने एकमात्र रहनुमा 
उस टूटे बक्से समेत 
जिस पर लगी जंग का इतिहास
करीब-करीब उनकी झुर्रियों की उम्र का
रहा होगा ...
बक्से की दरारें भी कांपती
लिखते हाथ के साथ साथ !
भोजन, द्रष्टि, उर्जा, श्रवण सब ऊबने लगे 
सिवाय लिखने के !
झुकी पीठ किये बैठे रहते वो उलाहनों व्
कटु वचनों से! वही पीठ
जिस से चढ़कर उनके वंशज ,कंधे पे बैठ
उनसे ऊँचे होने की होड किया करते थे
और पिता , हमेशा ही हारते रहे  
उन्हें जिताने को ! !
खींचते रहे वो शाखाएं वंश वृक्ष की
वटवृक्ष हो जाने तक ..
हर ज़न्मने  वाला पुरुष अपनी शाख लेकर उगता
जाते जाते लिखते गए
‘’वंश वृक्ष को आगे बढ़ाने की बात !
वंश वृक्ष के उन पीले,उदास 
सिकुड़े पन्नों को बटोर तो लाइ हूँ
गेर-ज़रूरी सामान की पोटली में से
रख भी दिए हैं संभालकर
पिता के चित्र के निकट ,
बस यही पूछना चाहती हूँ पिता से की  
अनब्याही बेटी की शाख कहाँ होती है ?





9 टिप्‍पणियां:

  1. बस यही पूछना चाहती हूँ पिता से की
    अनब्याही बेटी की शाख कहाँ होती है ?

    बड़ी कडवी बात पूछ ली मगर जवाब तो शायद कहीं नहीं है .

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  2. बक्से की दरारें भी कांपती
    shayad yaha bakse ki deewarain hona chaahiye tha.

    अनब्याही बेटी की शाख कहाँ होती है?
    anbyahi beti???? kya uski shaakh ko samaj sweekaar paayega ?

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  3. पिता पर अच्छी कविता..
    इसके साथ जो चित्र लगाया आपने वह भी कविता के भाव को ही प्रतिध्वनित कर रहा है.
    गेर-ज़रूरी इसे गैर-जरूरी कर लें.

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  4. नरेंद्र जी ,वंदना जी ,
    आपको कविता अच्छी लगी,बहुत धन्यवाद
    वंदना

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  5. अनामिका जी
    धन्यवाद ,आपको कविता अच्छी लगी! संपर्क बनाये रखें
    वंदना

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  6. अरुण जी
    'बहुत अच्छा लगा आपका कमेन्ट पढकर !निस्संदेह आपकी टिप्पणी प्रेरणा दायक है मेरे लिए !
    आभार

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  7. बहुत सुन्दर. कडवी बात बिना कडवाहट के कह दी गयी .

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