वर्जनाओं,परम्पराओं ,रिवाजों के
ज़र्ज़र ,दीमक खाए बाड़ों को
रौंदता /खारिज करता, अपने ताज़ा विचारों
सोच और तकनीक के
तमाम ताम झाम के साथ
मौलिकता के दंभ से उत्प्रेरिक,
नया युग चलता है हमेशा ही
पिछले युग से,कई कदम आगे
रीतता –सा कुछ ,बीतता व्यतीत
समाता जाता है अंधेरी सुरंग में जहाँ
पहले से ही दफ़न हैं सदियाँ ,
तहों में छिपे से, हर परत के बीच-बीच ,
कई चेहरे ,कई नारे, कई उपदेश
हजारों दावे,सैंकडों किंवदंतियाँ,
,चेहरे ,जिनके नाम भी थे कभी,
और जो थे ,समय कि स्याही से लिखे
सहूलियत के रजिस्टर में दर्ज
अब सिर्फ चेहरे हैं यहाँ बेजान और
नाम ज़िंदा हैं पाठ्यपुस्तकों के पन्नों में
एक विचार, जो करेगा तुलनात्मक विवेचन
चूल्हे और कुकिंग गैस का,
बैलों और ट्रेक्टर का,
इंसान और आदमी का
नैतिकता और तकनीक का
यथार्थ और ‘ज़रूरत’’का
हर बीता सच ,करता है तय हद्दें
भविष्य की नैतिकता की,और
हर प्रगतिशील युग तोडता है सीमाएं
अपने इतिहास की !
कहीं यही मौलिकता तो
‘’अभिव्यक्ति कि आज़ादी ‘’नहीं ?
विचारणीय प्रश्न। गहरी सोच। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंविचारणीय प्रश्न।
जवाब देंहटाएं... bahut sundar !!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद निर्मला जी !वंदना जी ,नया सवेरा...आपकी टिप्पणी प्रोत्साहित करती है !संपर्क बनाये रखिये
जवाब देंहटाएंवंदना
bahut sundar vandana ji
जवाब देंहटाएंहर प्रगतिशील युग तोडता है सीमाएं
जवाब देंहटाएंअपने इतिहास की !
कहीं यही मौलिकता तो......अच्छी अभिव्यक्ति कई मोलिक प्रश्न आपने उत्तरों को ढूंढ़ता !!!!!!!!!!!!Nirmal Paneri
धन्यवाद दीप जी और निर्मल पानेरी जी
जवाब देंहटाएंसाभार ...
वंदना
पर अब अपनी सहूलियत के सच भी है.....ओर नैतिकताए भी.......
जवाब देंहटाएंकविता प्रभावशाली है .....
धन्यवाद डॉ.अनुराग ,''चिंतन ''में आपका स्वागत है !हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंवंदना