शब्द आजकल
खोने लगे हैं अर्थ अपने
,मची है अफरा – तफरी
मंतव्यों और विचारों की दुनियां में
अभिव्यक्ति की आज़ादी,
लोकतंत्र की आड़ में
लहराने लगी है मुट्ठियाँ!
खेमों में तब्दील हो गए हैं यकायक ,
तमाम विचार /संवाद/आक्रोश!
संवादहीन ये सत्तर फी सदी जनता,
आभिजात्य दांव पेचों से अनभिग्य,
ढूँढ रही है खाली झोलों में,
अपने बच्चों का भरपेट भविष्य!
वही धरती,जो सोना उगलती रही
विदेशों तक
और धरती-सुत करते रहे आत्महत्याएं ,
माँ की सूनी छाती पे लोटकर
आकाश में मदमस्त डोलती पतंगों कि
पेट भर आलोचना करते ये
ज़मीन से जुड़े कुछ,
जुझारू –जागरूक पढ़े लिखे लोग ,
रंगते रहे पन्ने किसानों की मौत के,
खाते हुए बर्गर पीजा !
लहराती पतंगों ने
हवाओं का रुख भांप ,
,फूल बरसाए
किसानो की लाश पर!
और इस तरह एक सभ्य-रीत को निभा
उड़ चलीं भिन्न भिन्न आकृति की पतंगें
और ऊपर आसमान के ,बलखाती हुई,
देखने ,कि बाढ़ की तबाही में
बिलखते ,बेघरबार परिवार
कैसे दीखते हैं ‘’ऊपर ‘’से !!
काले चश्मों का पर्दा डाले
फिकवाते रहे रोटी के पैकेट
लपकते रहे नंगे भूखे बच्चे
कैच करते रहे कैमरे ,
‘’सहानुभूति’’के मर्म- स्पर्शी द्रश्य
आंख पर पट्टी बांधे वो कुशल राजनेता
करते रहे अगुआई एक राष्ट्र प्रमुख की!
दो घटनाएँ एक साथ जीती रहीं खुद को
एक ही समय में ,अलग अलग मंच पर
एक परिणिति,हत्यारी भूख की ,
और ,दूसरी,
भव्य कॉमन वेल्थ की शानदार
शान शौकत और रंगीनियों की..
क्यूँ न हो ,आखिर
पूरा विश्व देख रहा है रौनक
देश के विकास और सम्रद्धि की !
बेबस,दीन हीन
ज़मीन पे खड़े लोग देखते रहे
ज़मीन से जुड़े लोगों को
‘खड़े और ‘जुड़े’’होने के फर्क के साथ
आस भरी नज़रों से!
सुलगते रहे न जाने कितने समुद्र
चमकती बिजलियों कि आग में
ज़मीन से जुड़े लोग
देते रहे धरने करते रहे आन्दोलन
‘वो’ ‘चीखते करते रहे गुहारें,
‘’लुटेरों से बचाने की ,
कभी’महगाई डायन की माला जपते ’’
कभी ‘’खेलों के पीछे के सच को
नंगा करने की नाकाम कोशिश करते
या,किसान की ताजा बेवा हुई औरत को
ट्रक पे अपने पति की लाश के साथ
शहादत का दर्ज़ा दिलाने ,
,चमकते कैमरे ,गवाह बनते
एक लाचार मौत के
मौत ,जिसका प्रसारण होना बाकि है
मुद्दों की उपजाऊ धरती पर
और जिन्हें एन्जॉय करेंगे दर्शक
डिनर की टेबल पर चिकन खाते
बतियाते,खिलखिलाते,
हो सकता है बोर होकर
राखी सावंत का नाच लगा लें !
टूटने लगी निराश/डूबती सांस
सिमटती - सिकुड़ती आंत
अखबार -चेनल रंगे रहे /मनाते
जश्न सा...
अबोधों की बर्बादी का
,अकूत खजानों के वो गुलाबी चेहरे
उड़ाते रहे मजाक
चिथड़ों का!
ज़मीन से जुड़े लोग
भींचते रहे दांत,
लहराती हुई मुट्ठियों के साथ
एयर कंडीशंड कारों के 'रथ'में ,
पैदल ,भूखी ,नंगी जनता
घिसटती रही धोखों को ढोते
नारों की पीठ पे !
सदियों से चल रहा ये खेल
बस बदले हैं तो
वाहनों के मॉडल और
अंदर के चेहरे, पर
चीखने की तर्ज़ पर
मिमियाती जनता
आज भी ,घिसटती हुई, पीछे पीछे
कुछ थक चुकी ज़र्ज़र
कडकडाती हड्डियां और
बिलबिलाते भूखे अशक्त
ज़मीन पे बिछे लोग
रोटी के साथ
इंतज़ार रहे हैं
अगली मौत का !
मौत, जिसे आदत सी हो गई है
सुर्ख़ियों में रहने की ...
ज़मीन से जुड़े लोग
जवाब देंहटाएंभींचते रहे दांत,
लहराती हुई मुट्ठियों के साथ
एयर कंडीशंड कारों के 'रथ'में
......
मौत, जिसे आदत सी हो गई है
सुर्ख़ियों में रहने की ..
बहुत मर्मस्पर्शी ...आज के हालात पर बहुत सशक्त सार्थक और सटीक टिप्पणी...
शब्द आजकल
जवाब देंहटाएंखोने लगे हैं अर्थ अपने
विचारोत्तेजक और सामयिक ..वाह
मार्मिक पोस्ट/सार्थक चिंतन.
जवाब देंहटाएंvry nice...
जवाब देंहटाएंसंवेदनाओं से भरी रचना ...आज सही में बहुत विरोधाभास है ...किसानों कि पीड़ा को बहुत अच्छे से उकेरा है और यह भी कि उन पर खबर कैसे बनायीं जाती है ...मर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंbahut dhanywad ,kailaash ji,vijay ji.
जवाब देंहटाएंsaabhaar
dhanywad vandanaji...charcha manch me rachna prakashit karne ke liye bahut abhaaree hun apkee
जवाब देंहटाएंabhaar
kusumesh ji ,anupriya ji evam sangeetaa ji
जवाब देंहटाएंbahut shukriya is protsaahan ke liye