तिलस्मी धुंध की उस
अँधेरी कैद से ,
मुक्ति का ज़श्न मनातीं
स्पंदित संभावनाएं
नमूदार होती हैं अचानक
अनजाने लोक में !
चमक उठता है एक और-
अबूझा संसार ,रोशनी का !
ज्यूँ उगता है बीज,
धरती की छाती फोडके,
खूबसूरत बाग ,या सूखे जंगल में ,
क्या फर्क पड़ता है,?
लेकिन नहीं
पड़ता है फर्क ,.क्यूंकि
इसी ‘फर्क’ की धरती पर
उगाए जायेंगे अवसर,
की जायेगी षड्यंत्रों की खेती !
षड्यंत्र जो हथियार बनेंगे,
उन हाथों के ,
जिन्हें आते हैं गुर खारिज करने के ,
मानवीयता,सच और ईमानदार को,
मासूमियत से.!.. ,
तपता रहेगा सूरज
पिघलती रहेंगी संभावनाएं !
सवेरे के स्वप्न से
सांझ कि उदासी तक
एक मुट्ठी धुप , ,
आकार लेती, धरती
धीरे धीरे ...और
पेड़,फूल,पत्ते,झाड,
दीवारें,किले ,हवेलियाँ,खंडहर,और वो
पांच सितारा होटल ,
जहाँ मुंह छिपाने लगती है
धुप भी आकर, .क्यूंकि,.
उसी के एन सामने
झक्क सफ़ेद इमारतों की
झिलमिलाहट में ,
कीचड के स्याह मनहूस धब्बों सी,या ,
सुन्दर - सलोनी देह पर
ज़ख्म सी मनहूस झुग्गियां
जो अँधेरे में उजाले के स्याह भ्रम,को
पोसती जीती/मरती रहीं हैं,
सदियों से,पीढ़ियों तक!
,जिन्हें खुद रोशन होना नहीं आया कभी ‘
पर बनती रहीं ‘उनकी’ उजालों की वजहें,
बल्कि सीखा ही नहीं है उन्होंने रोशन होना
या शायद चाहा ही नहीं
बस अंधेरों को सोख ,
बिखेरती रहीं उजाले
अब तो पीढियां हो गईं हैं अभ्यस्त,
,देह को दीपक बना,
पसीने से रोशन करने में,
उनके अँधेरे! ..
,याद नहीं किस सदी से
अलग हुईं लकीरें
शायद तबसे जबसे ,रंग इतने,
रंग बिरंगे नहीं हुआ करते थे !
सिर्फ दो ही रंग थे शब्दों की आँखों में,
काला या सफ़ेद! ...
रटा दिया गया था जिन्हें ,
पहाड़ों की तरह,
झूठ की पाठशालाओं में!और ,
रोप दिया गया था बीज सा
, रक्त के साथ शिराओं में!
बह रहा है वही रक्त खौलता-सा,
परंपरा से - नसीब तक...!
संस्कार से - जाती तक.....!
सच से - अत्याचार तक.....!
न्याय से - चीत्कार तक......!
भूख से - मौत तक.......!
छटपटाते से
आज भी घूम रहे हैं ,वो छद्म
धैर्य के ओरबिट में
शायद करवट बदलने को है युग,
या/शायद होने को हैं ,
रंगों का पटाक्षेप
अँधेरी कैद से ,
मुक्ति का ज़श्न मनातीं
स्पंदित संभावनाएं
नमूदार होती हैं अचानक
अनजाने लोक में !
चमक उठता है एक और-
अबूझा संसार ,रोशनी का !
ज्यूँ उगता है बीज,
धरती की छाती फोडके,
खूबसूरत बाग ,या सूखे जंगल में ,
क्या फर्क पड़ता है,?
लेकिन नहीं
पड़ता है फर्क ,.क्यूंकि
इसी ‘फर्क’ की धरती पर
उगाए जायेंगे अवसर,
की जायेगी षड्यंत्रों की खेती !
षड्यंत्र जो हथियार बनेंगे,
उन हाथों के ,
जिन्हें आते हैं गुर खारिज करने के ,
मानवीयता,सच और ईमानदार को,
मासूमियत से.!.. ,
तपता रहेगा सूरज
पिघलती रहेंगी संभावनाएं !
सवेरे के स्वप्न से
सांझ कि उदासी तक
एक मुट्ठी धुप , ,
आकार लेती, धरती
धीरे धीरे ...और
पेड़,फूल,पत्ते,झाड,
दीवारें,किले ,हवेलियाँ,खंडहर,और वो
पांच सितारा होटल ,
जहाँ मुंह छिपाने लगती है
धुप भी आकर, .क्यूंकि,.
उसी के एन सामने
झक्क सफ़ेद इमारतों की
झिलमिलाहट में ,
कीचड के स्याह मनहूस धब्बों सी,या ,
सुन्दर - सलोनी देह पर
ज़ख्म सी मनहूस झुग्गियां
जो अँधेरे में उजाले के स्याह भ्रम,को
पोसती जीती/मरती रहीं हैं,
सदियों से,पीढ़ियों तक!
,जिन्हें खुद रोशन होना नहीं आया कभी ‘
पर बनती रहीं ‘उनकी’ उजालों की वजहें,
बल्कि सीखा ही नहीं है उन्होंने रोशन होना
या शायद चाहा ही नहीं
बस अंधेरों को सोख ,
बिखेरती रहीं उजाले
अब तो पीढियां हो गईं हैं अभ्यस्त,
,देह को दीपक बना,
पसीने से रोशन करने में,
उनके अँधेरे! ..
,याद नहीं किस सदी से
अलग हुईं लकीरें
शायद तबसे जबसे ,रंग इतने,
रंग बिरंगे नहीं हुआ करते थे !
सिर्फ दो ही रंग थे शब्दों की आँखों में,
काला या सफ़ेद! ...
रटा दिया गया था जिन्हें ,
पहाड़ों की तरह,
झूठ की पाठशालाओं में!और ,
रोप दिया गया था बीज सा
, रक्त के साथ शिराओं में!
बह रहा है वही रक्त खौलता-सा,
परंपरा से - नसीब तक...!
संस्कार से - जाती तक.....!
सच से - अत्याचार तक.....!
न्याय से - चीत्कार तक......!
भूख से - मौत तक.......!
छटपटाते से
आज भी घूम रहे हैं ,वो छद्म
धैर्य के ओरबिट में
शायद करवट बदलने को है युग,
या/शायद होने को हैं ,
रंगों का पटाक्षेप
झूठ की पाठशालाओं में!और ,
जवाब देंहटाएंरोप दिया गया था बीज सा
, रक्त के साथ शिराओं में!
बह रहा है वही रक्त खौलता-सा,
परंपरा से - नसीब तक...!
संस्कार से - जाती तक.....!
सच से - अत्याचार तक.....!
न्याय से - चीत्कार तक......!
भूख से - मौत तक.......!
छटपटाते से
आज भी घूम रहे हैं ,वो छद्म
धैर्य के ओरबिट में
शायद करवट बदलने को है युग,
या/शायद होने को हैं ,
रंगों का पटाक्षेप
बेहद उम्दा प्रस्तुति दिल को छू गयी सच्चाई उजागर करती है।
अच्छी प्रस्तुति होती है आप की
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
बहुत बहुत धन्यवाद