सुबह का तारा ,अरसे बाद दिखा ,
उम्मीदों की खुली खिडकी से
ना जाने कितने प्रकाश वर्ष दूर
एक अंधेर से कोने में ,टिमटिमाता हुआ
अपने हिस्से के आकाश को
हौले से थामे !
उस वक़्त रख रही थी मै तह करके
उम्र को रात के बक्से में, हर रोज की तरह!
एक हलकी सी दस्तक हुई उदासी की देहरी पर
तो सोचा करवट ली होगी किसी सपने ने शायद
नीद में मुस्कुराते हुए ,
यकायक बारिश की रिमझिम
भिगोने लगीं हवा को
झरने लगा हरसिंगार
नरम दूब कि देह पर
ज्यूँ झनझनाती हैं उँगलियाँ सितार के तारों पर
ज्यूँ फूटती हैं रागिनियाँ
किसी बांस के झुरमुट से
ज्यूँ उलीचता है चाँद हथेलियों में भर
चांदनी को और बिखर जाती है वो
मोतियों सी ज़मीन पर खिलखिलाते हुए !
होता है ऐसा,पर अक्सर नहीं
कि परिधि छोटी पड़ जाती हो धरती की
बिखरे सपनों को समेटने के लिए ,
तब आंख से ,
किसी बुझी उम्मीद का काजल ले
लगा देती हूँ वक़्त के माथे पर मै
Beautiful expression. Loved it.
जवाब देंहटाएंthanks a lot ishan
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