6 जून 2011

सम्बन्ध


                          


बचपन में मरने से बहुत डरती थी मै
 हलाकि इकहरा था ये शब्द ,अर्थ के बगैर
  उम्र का वो नाज़ुक हिस्सा, जहा शब्द किसी अर्थ में ढलने से पहले
 ,कन्धों  से फिसल जाया करते हैं ,या कि
 ढोने का  सलीका नहीं होता अर्थ को उन्हें तब
लिहाजा,शब्द का ‘’होना’’ नहीं बल्कि 
 डराता था  माहौल का घुल जाना उसमे ,
 जो आतंक  पैदा करता ,उन सन्नाटों से ,
जो किसी मृत-देह से निकल पसर जाते थे भय ग्रस्त चेहरों तक,
जैसे हर जिंदा चेहरे पर लटकता हुआ एक सच, फंदा बनकर
भटकती रहती मृतक  कि स्मृतियाँ घर भर में खुद को ढोती हुई
जबकि एन उसी  वक़्त , मै चाहती , अपनी मुस्कुराती गुडिया से खेलना
चाहती ,छत पर हाथ फैलाकर गोल २ घूमना /
जाना चाहती दादाजी कि उंगली पकड़ उछलती कूदती चौकलेट लेने बाज़ार तक /
समुद्र के किनारे गीली रेत में पैर घुसा घर बनाना चाहती थी मै,
 अर्थ के सामर्थ्य से अनभिग्य अक्ल  को उलटती पुलटती जब तक ,
  सन्नाटे लील चुके होते मेरी तमाम चाहतें  /
और मैं देखती रहती ,ऑंखें गढाए
निकटस्थों  के  उन बेरौनक चेहरों को ,जो
/प्रतीक्षा रत होते ,’सच’ और ‘भय’को सौपने वक़्त को  
वक़्त-जो इन्हें अपनी पीठ पर लाद ले जायेगा



किसी रस्मो रिवाज़ कि तरह
अँधेरी कोठरी में दबा आने को/और तब.../
 फिर से रोशन हो जायेंगे  चेहरे/
जिंदगी कि शाखों पर फिर झूलने लगेगी खुशियाँ /
खिलखिलाहटें बिखरने लगेंगी  मौसमों कि
खुशबूदार पकवानों और ढोलक कि थापों की
 /पर तब तक भूल चुकी होउंगी मै  खेलना गुड़ियों से/
गोल २ घूमना छत पर/चौकलेट के स्वाद/रेत का घर/
हल करते हुए जीवन  और रिश्तों के अबूझ समीकरण ....



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें