13 जून 2011

अंततः.......


एक खेल है यदि जिंदगी
तो हम सिर्फ परिभाषा हैं पराजय की?
 उम्मीदों की गर्म राख के भीतर   ,
 दहकती हुई कोई चिंगारी!
ढूंढ कर  उस अग्नि को,
और पुनः एक हिस्सा बन जाना 
जैसे समाते हैं सूर्य चाँद तारे
 किसी अद्रश्य बिंदु में?
जैसे समाती हैं नदियाँ
किसी अज्ञात बूंद में,
नदी में कागज कि नाव,
या किसी दीमक के पेट में समाता है कोई वृक्ष
जलोदधि में कोई अमृत कण या
अंदेशों के आतंक में घुला हुआ कोई सच ?
जैसे चली आती हैं व्याधियाँ
पुरखों के नाम के बदले ,
या कोई बहुत महीन सी आस्था
जो फंस जाती है किसी शिरा में
और जम जाती हैं तमाम नसें
 नीलेपन की प्रतिबद्धता के साथ
 जिंदगी के तमाम  प्रशनों का 
इकलौता ज़वाब यही है शायद ....

1 टिप्पणी: