8 सितंबर 2011

युग



आकार लेती स्मृतियों की परछाइयाँ अक्सर ,
ठहर जाती हैं उन लम्हों के इर्द गिर्द
जिनके चेहरे कम, बिम्ब अधिक गाढ़े होते हैं
दृश्यों के धुन्धलाये चित्र
चंद चीखें देह पर चिपकी हुई 
शेष निशान आत्मा पर
कभी पक्षी यादों के, बैठ जाते हैं
किसी द्रश्य की डाल पर
कुतरते रहते हैं मौसम
अतीतजीवी स्मृतियों की कोई भाषा नहीं होती
बस होती हैं दो ऑंखें  
घूरती हुई आर पार 

7 टिप्‍पणियां:

  1. ख़ूबसूरत रचना , बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  2. अतीतजीवी स्मृतियों की कोई भाषा नहीं होती
    बस होती हैं दो ऑंखें
    घूरती हुई आर पार

    ... कमाल की अभिव्यक्ति। बहुत सुंदर

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  3. कैलाश जी ,महेश्वरी जी बहुत आभारी हूँ आप के इस प्रोत्साहन के लिए ...धन्यवाद

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