मेरे ज़न्म के वक़्त माँ ने,
उनके या मेरे में से किसी एक के
जीवित बचने की संभावना के चलते
स्वयं म्रत्यु स्वीकारते हुए
मेरा ज़िंदा रहना बचा लिया था
पर हम दौनों ही बच गए !
जीवन भर ढोती रहीं वो अपना जीना
मन की किसी ग्रंथि में दबाये
और अपने ‘’जाने’’ तक,
इस अहसास से मुक्त नहीं हो पाईं
लिहाज़ा मेरे हर ज़न्म दिन पर
भगवान को नारियल चढाती रहीं
संभवतः उन्हें धन्यवाद देती हुईं!
अब सोचती हूँ ,
क्यूँ किया करीं वो ये?
जबकि जाना तो पहले ही
तय कर चुकी थीं वो अपना ही ,
और वो चली भी गईं पहले ही ?
तो क्या ज़िंदा रहीं अब तक वो सिर्फ
भगवान को धन्यवाद देने के लिए?
माँ ऐसी ही होती है... बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण रचना .मन को छू गई..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद महेश्वरी जी,इस प्रोत्साहन के लिए
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