नदी थीं उसकी ऑंखें
शांत गहरी निर्मल
मुक्त नौका सी उतराती इच्छाएं उस में
पहाड़ों की परछाईंयों को हथेली में भर
टांग देती अनुभूति का एक छोर आसमान पर वो
स्वप्नों के सफ़ेद हंस पंक्तिबद्ध उतरते नहाने उसमे
आँखों से पहले मन भी रहा होगा ,
इच्छाओं के सघन वन में भटके हिरन –सा
उड़ा देतीं आँखें कुछ पंछी तडप के
उड़ते फिरते आसमान में उदास
लौट आते सांझ फिर आँखों में
आदम से छुई होगी जब वो
यही उसका देह हो जाना हुआ होगा
तत्क्षण मौसमों से भर गई होगी वो
पहाड़ों के पीछे छिप रहा होगा सूरज लेकिन
उसकी किरणों से नहा रही होगी तब तक
निर्वस्त्र.....निर्मल...निष्कंटक
रात में डूब गई वो या उसमे रात
चेत आने तक खिल चुकी थी धरती
एक प्रथ्वी धडक रही थी सीने में उसके
निर्लज्ज वासनाओं के पहरे में
एक नदी बहती है समुद्र की आँखों में
सहमी ठिठकी घुटी हुई
तटों के भीतर
चक्षु विहीन !
मार्मिक सुन्दर अभिव्यक्ति....
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