मत पूछो,कि सुबह इतनी धुंधली क्यूँ है?
ढूंढो रात की बैचेनी में वजह ...
ये सर्व - हारों का मुल्क है
खोखली -जीत का जश्न मनाता
एक कच्चा सा रास्ता दिखा जिन्हें
उतर गए अपनी -२ उधड़ी हुई पीठों को लिए
सीनों पर रख दीये गए हैं पत्थर उनके
सांस बची रहने की मोहलत देकर
विचारों पे पहरे हैं विवशताओं के
काठ के उल्लू में तब्दील करते हुए
जब गड्ढों भरी सड़कों में गिरो
अपने पैरों को दोष देना सीखो |
जब सड़क पर बिखर जाये लहू तुम्हारा
अपने टूटे फूटे अंगों को बाईं तरफ खिसका
रस्ता साफ़ करो विकास का |
जब कभी खरोचने जैसा हो भीतर कुछ
कुतर दो नाखून दांतों से अपने
जब भी लगे कि प्रहार हुआ है आत्मा पर
सतयुग का इंतज़ार करो
जब ऑंखें भर जाएँ किसी लाल द्रव से तो
क्रिकेट की जीत के जश्न से धो डालो
हर पन्द्रह अगस्त पर याद करो
कि हम और जकड़े जा रहे हैं
अपनी आज़ादी को बचाते हुए
अंधेरों को पोंछकर हाथों से ,
कोई एक और दिन चुनो
अपनी आजादी का
एक शुरुवात ये भी तो हो सकती है
गुलामी के अंत की ?
सटीक आह्वान्।
जवाब देंहटाएंसार्थक और सटीक आह्वान्।...अभिव्यंजना में आप का स्वागत है...
जवाब देंहटाएंkaneriabhivainjana.blogspot.com
dhanywad vandana ji maaheshwari ji
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विजय कुमार जी
जवाब देंहटाएंबेहद प्रभावशाली रचना ! इस झूठी आज़ादी को उधेड़ती हुई तेज ,और धारदार अभिव्यक्ति !इतनी अच्छी कविता के लिए पाठक-मन आभार व्यक्त करता है !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ''मिसिर जी''इस प्रोत्साहन के लिए :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब....
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