वो ,मजदूर स्त्री ,गर्भवती ,पेड़ के नीचे पैर फैलाकर
पसीना पोंछती बैठी है,अधलेटी सी ...
,पेड़ के तने से लटके झूले पर ,
कुनमुनाता बच्चा,भूखा सा, एक हाथसे
झोके देती स्त्री अनमनी ..सी,और
दुसरे हाथ से पेट को सहलाती ,दुलारती ! .
''ठेकेदार''की कनखियाँ ,जिसमें शामिल हैं
तरेरना आँखों का ,और महसूसना स्त्री का
किसी बहुत बोझिल पत्थर का अपने सीने पर !
साँसों की धौंकनी.व् भीतर के स्पंदन को
सम पर लाने की मोहलत'' से जूझती ज़िन्दगी ,
थक चुकी है वो पत्थरों के साथ खुद के सपनों को तोड़ते ,बिखराते, !
वो नहीं जानती, की प्रथ्वी कैसे और क्यूँ घुमती है
उसे ये भी नहीं पता की सूरज और प्रथ्वी के ''होने' के,
क्या मायने होते है?
महसूसता है तो बस
भूख के अलावा , पेट के भीतर कुछ प्रथ्वी सा घूमता
सैकड़ों विवशताओं की धुरी पर !
उगना -अस्त होना सूरज का !
,क्या फर्क पड़ता है?
उगे-उगे न उगे न सही...उसके लिए तो नियमित
तमाम नई उगती ज़द्दोज़हद के साथ मजदूर साथियों के साथ
''गाड़ी में ''भरकर काम पर जाना , उगना होता है सूरज का ,
और निढाल होकर सबके साथ भरकर वापस लौटना
सूरज का अस्त हो जाना!
उसकी कुल जमा ज़िन्दगी के दर्शन की तरह !
खुदा का लाख शुक्र की स्त्री में उसने
केवल उत्तर भरे हैं.प्रश्न नहीं,
तभी तो प्रथ्वी अस्तित्वमय है अब तक
अपनी तयशुदा ,धुरी पर?
,
बहुत संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है
जवाब देंहटाएंमैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है.....
जवाब देंहटाएंदिपोत्सव की शुभकामनाएँ
बेहद संवेदनशील रचना।
जवाब देंहटाएंदीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।
वो नहीं जानती, की प्रथ्वी कैसे और क्यूँ घुमती है
जवाब देंहटाएंउसे ये भी नहीं पता की सूरज और प्रथ्वी के ''होने' के,
क्या मायने होते है?
महसूसता है तो बस
भूख के अलावा , पेट के भीतर कुछ प्रथ्वी सा घूमता
सैकड़ों विवशताओं की धुरी पर !
उगना -अस्त होना सूरज का !
do roti ka sach , suraj bhi roti chaand bhi roti
बेहद संवेदनशील रचना।
जवाब देंहटाएंदीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।
बहुत मार्मिक प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 09-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
जवाब देंहटाएंकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया