1 नवंबर 2010

एकालाप


मेरे बचपन के ठीक सामने वाले
सपनों के  आँगन में 
एक कोमल सा पेड़ उगा था कभी 
जिसे एक बाल जिज्ञासु 
प्रतिबध्दता की तरह
पाला पोसा था मैंने!
और वो मेरे  
सपनों के साथ बढ़ता  गया  
फिर अचानक एक दिन 
उभरने  लगे  उसके 
कोमल तने  पर 
अनायास 
कुछ कठोरता के चिन्ह 
और फिर बनता गया वो
एक कंटीला झाड़ ,झरबेरी का
जिसने  मौसम का लिहाज़ छोड़ ,
 अपनी कटिबद्धता का दंभ
और निर्वहन करते हुए
काँटों के बीच बीच भी टांक दिए  थे
सुर्ख  लाल लाल छोटे  छोटे फल.
आशाओं के 
कि कभी उस पर भी दृष्टि पड़ेगी किसी 
तितली,चिड़िया या किसी और पक्षी की 
इतराएगा वो भी गर्वित हो ,
अपनी प्रासंगिकता पर,
भले ही पक्षी ,चोच से अपनी
उसकी कृति,उसके हौसले को 
ध्वस्त कर बिखरा दें उसे
तार तार कर ज़मीन पर 
निर्दयता  से !,
अपने ''होने ''की 
सार्थकता की ये कीमत
चुकाना भी मंज़ूर था उसे 
पर नहीं हुआ ऐसा,
दरअसल ऐसा हो नहीं सका ,
क्यूंकि 
 आधुनिक 
सभ्यता के उसूलों का निर्वहन करते 
उसे नहीं आता था अपना चेहरा
मुखौटे से छिपा पाने  का गुर,
यानी कि  
खुद की तासीर को बेच पाने का हुनर 
,अलबत्ता
सींचा नहीं गया उसे गुलाब के फूलों और 
सब्जियों की तरह, प्यार से 
या दुधारू पशुओं की तरह दुलराया ,
और तो और उसकी प्रासंगिक हीनता के बोध को 
उसी के खुरदुरे अस्तित्व के साथ 
  खूंटी पर टांग दिया जाता रहा
उपदेशों की,
 बार बार , यीशु के 
सलीब की तरह

5 टिप्‍पणियां:

  1. गहन चिन्तन। इन्सान प्रकृति से भी कुछ नही सीखता। अच्छी लगी रचना। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना ( बचपन ) 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  3. kafi prabhawshali rachna ...

    rasprabha@gmail.com per yah rachna bhejiye ... parichay aur tasweer ke saath vatvriksh ke liye

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
    बहुत देर से पहुँच पाया ...............माफी चाहता हूँ..

    जवाब देंहटाएं