18 नवंबर 2010

पहचान



सब कुछ दर्ज है,मेरी पहचान में

नाम,उम्र,चित्र,शहर,शिक्षा ,पता
बस लापता हूँ,तो कहीं मै उसमे !
जब कभी रु ब रु होते हैं
मै और मेरी पहचान तो
पूछती है वो मुझसे,
की ''कौन हो तुम ?''
मै कहती हूँ ध्रुव  तारा ,
टांग दिया गया जिसे
सुदूर आसमान पर
एक व्यतीत  बना ,या फिर
समुद्र हूँ मै, जिसकी
विशालता में समाहित है
न जाने कितनी  कलपती नदियाँ
पुछा कभी उससे की कितना खुश है वो
खुद में खारेपन  की
महानता को समेटे 
आंसू की तरह?
या फिर आइना हूँ मैं ,
 यथार्थवादिता से श्रापित ,
 नकारता रहा जो मेरे
उस प्रतिबिम्ब को जिसे
देखना चाहती थी मै!
या वो स्त्री जिसे
प्रतिष्ठा की कीमत के तहत
छोड़ दिया गया घने वन में
नाम,पता पत्नी,देवी,
सब तो थे उसके पास
बस वो नहीं थी
न तब....
न अब....!

12 टिप्‍पणियां:

  1. न जाने किस-किस की व्यथा आपने अपने शब्दों में व्यक्त कर दी... बहुत ही सुन्दर रचना...

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  2. हर स्त्री मन की व्यथा को उकेर दिया……………सुन्दर बिम्ब प्रयोग्।

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  3. स्त्री की मर्म व्यथा
    मेरा दर्द ना जाने कोय

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  4. बहुत ही अच्छी कविता ..मन के असमंजस को व्यक्त करती हुई ..अच्छी रचना के लिए बधाई

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  5. अप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद्
    वंदना

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  6. अच्छी कविता,..इसी तरह लिखती रहें।

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  7. बहुत कुछ कह दिया धीरे धीरे...मानो परत दर परत खोल के रख दी एक नारी जीवन की. सुंदर बहुत सुंदर रचना.

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  8. धन्यवाद् अरुणजी एवं भारतेन्दुजी
    आपने कविता पढी इसी से अभीभूत हूँ! सरोकार एवं कविता को सराहने के लिए के लिए हार्दिक धन्यवाद्....!
    साभार
    वंदना

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  9. anamika ji
    bahut bahut dhanyawad.apki tippani mujhe nissandeh hausala detee hain.abheri hun
    vandana

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