सब कुछ दर्ज है,मेरी पहचान में
नाम,उम्र,चित्र,शहर,शिक्षा ,पता
बस लापता हूँ,तो कहीं मै उसमे !
जब कभी रु ब रु होते हैं
मै और मेरी पहचान तो
पूछती है वो मुझसे,
की ''कौन हो तुम ?''
मै कहती हूँ ध्रुव तारा ,
टांग दिया गया जिसे
सुदूर आसमान पर
एक व्यतीत बना ,या फिर
समुद्र हूँ मै, जिसकी
विशालता में समाहित है
न जाने कितनी कलपती नदियाँ
पुछा कभी उससे की कितना खुश है वो
खुद में खारेपन की
महानता को समेटे
आंसू की तरह?
या फिर आइना हूँ मैं ,
यथार्थवादिता से श्रापित ,
नकारता रहा जो मेरे
उस प्रतिबिम्ब को जिसे
देखना चाहती थी मै!
या वो स्त्री जिसे
प्रतिष्ठा की कीमत के तहत
छोड़ दिया गया घने वन में
नाम,पता पत्नी,देवी,
सब तो थे उसके पास
बस वो नहीं थी
न तब....
न अब....!
न जाने किस-किस की व्यथा आपने अपने शब्दों में व्यक्त कर दी... बहुत ही सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंहर स्त्री मन की व्यथा को उकेर दिया……………सुन्दर बिम्ब प्रयोग्।
जवाब देंहटाएंमार्मिक,,,,,,,,,,,,,
जवाब देंहटाएंस्त्री की मर्म व्यथा
जवाब देंहटाएंमेरा दर्द ना जाने कोय
बहुत ही अच्छी कविता ..मन के असमंजस को व्यक्त करती हुई ..अच्छी रचना के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंअप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंवंदना
अच्छी कविता,..इसी तरह लिखती रहें।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ कह दिया धीरे धीरे...मानो परत दर परत खोल के रख दी एक नारी जीवन की. सुंदर बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद् अरुणजी एवं भारतेन्दुजी
जवाब देंहटाएंआपने कविता पढी इसी से अभीभूत हूँ! सरोकार एवं कविता को सराहने के लिए के लिए हार्दिक धन्यवाद्....!
साभार
वंदना
anamika ji
जवाब देंहटाएंbahut bahut dhanyawad.apki tippani mujhe nissandeh hausala detee hain.abheri hun
vandana
अच्छी कविता ।
जवाब देंहटाएंbahut bahut dhanyawad sharad ji.swagat hai apka ''chintan '' par
जवाब देंहटाएंsabhar
vandana