आदमी को अकेलापन नहीं सुहाया
फिर उसने भीड़ बनाई
और फिर कुछ उसूल जैसे,
शामिल होते ही भुला दिया जाना खुद का चेहरा
न सिर्फ चेहरा बल्कि अपनी आवाज़,अपनी भाषा,
अपने मौन,अपने ‘होने’के अर्थ सब कुछ
मुस्कुराना उन जगहों पर जहा टीसने कि खुरदुराहट हो
होश वहां खोना,जहा विवेक की सर्वाधिक अपेक्षा हो,
भाषा के वो लहजे ,जो परिष्कृति सोचते ही छद्म करार दिए जाते हों
विवशताओं में नैतिकता के मूल्य तलाशने का हुनर और
"भीड़’’ और ‘’भेड़’’ के गूढ़ अंतर्संबंध को मान्यता,
कृत्रिमता को मौलिकता कहने का साहस
इस विडम्बना को खारिज कर, हे मनुष्य-
ज़न्म से म्रत्यु तक भीड़ का हिस्सा होने से अलग
कुछ खोज सको तो खोजो
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (9-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत २ धन्यवाद वंदना जी ,कि अपने इस कविता को ''चर्चा मंच''के योग्य समझा
जवाब देंहटाएंसाभार
वंदना
भीड़ से अलग होने की खोज ही सार्थक होती है ...अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंshukriya sangeeta ji.
जवाब देंहटाएंआदमी को अकेलापन नहीं सुहाया
जवाब देंहटाएंफिर उसने भीड़ बनाई
और फिर कुछ उसूल जैसे,
शामिल होते ही भुला दिया जाना खुद का चेहरा
न सिर्फ चेहरा बल्कि अपनी आवाज़,अपनी भाषा,
अपने मौन,अपने ‘होने’के अर्थ सब कुछ
aur antatah n maya mili n ram , jivan kee sampoornta aakash mein sama gai ... bahut hi achhi rachna
भीड़ से अलग अपने होने का अर्थ कुछ लोग ही तलाश पाते हैं ... अच्छी रचना है ...
जवाब देंहटाएंभीड़ से अलग होने की खोज.....
जवाब देंहटाएंगहन भावों की सार्थक रचना...
"और फिर कुछ उसूल जैसे,
जवाब देंहटाएंशामिल होते ही भुला दिया जाना खुद का चेहरा"
अद्भुत! ऐसे ही लिखते रहें.
shukriya rashmi prabhaji,surendrji swagat hai apka chintan me
जवाब देंहटाएंsabhaar
thanx ishan ...
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना . बधाई।
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
"भीड़’’ और ‘’भेड़’’ के गूढ़ अंतर्संबंध को मान्यता,
जवाब देंहटाएंकृत्रिमता को मौलिकता कहने का साहस
गहन भावाभिव्यक्ति, गूढ़ विचारों से रची सुंदर कविता.
गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएं