इतिहास-सा | ठहरे पन के साथ
चंद सन्नाटों से घिरा
उम्र कि सिलवटों से बेपरवाह
मुझे पसंद आया इस तरह रहना उसका
अब मेरी रिहाइश है वो
नीम का पेड़ भी रहता है यहीं
उम्र के चिन्हों से अज्ञात
आधुनिकता के शोर से
वक़्त के बहरे होने के पहले तक
किस्से बहा करते थे, नदियों में जंगल के यहाँ
अब सिर्फ हवाएं रहती हैं
पेड़ जंगल हुआ
नदी आँखों में भरे
पेड़ देखा करता हरियाली के ख्वाब
बांटने लगा वो मुझसे मौसम अपने
और मै अपना अकेलापन
अब हम दोस्त थे
हमारी मौन बतियाहट के अंतिम हिस्से में
विदा कहने के पहले फुसफुसाता है पेड़ कान में मेरे
कि ‘’अभी जिंदा हो तुम’’|
और आश्वस्त हो फिर भीड़ हो जाती मै
वक़्त खोजता रहता है अब भी
अशक्त ,हताश –सा
उस एकांत को,
जो लिए जाती हूँ मै अपने साथ |
अब हम दोस्त थे
जवाब देंहटाएंहमारी मौन बतियाहट के अंतिम हिस्से में
इस कविता में कुछ ऐसा है जो हमें रुक कर सोचने पर विवश करता है।
अब हम दोस्त थे
जवाब देंहटाएंहमारी मौन बतियाहट के अंतिम हिस्से में
इस कविता में कुछ ऐसा है जो हमें रुक कर सोचने पर विवश करता है।
बेहद गहन्।
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (12-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
thanks vandana ji ...
जवाब देंहटाएंबाँटने लगे पेड़ और मैं अपना अकेलापन और मौसम ...
जवाब देंहटाएंपेड़ों से मौन बतियाहट सलोनी है ...
dhanywad vani ji
जवाब देंहटाएंdhanywad manoj ji
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंकैसी हैं आप?कविता आपको पसंद आई ,अच्छा लगा जानकर !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
वक़्त की गहरी अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंdhanywad nasva ji
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।
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