-- हाँ ,मै समय हूँ ......!
ज्ञात -परिधि से मुक्त
संवेदन हीन,तटस्थ ,निर्मोह
दंभ की कुटिल जिज्ञासा वश
मुझे शब्द बना
कैद कर दिया गया
गूढ़ किताबों के अँधेरे प्रष्टों में
मान लिया गया /कि मुझे समेट लिया गया है
ज्ञानियों ने मुट्ठी में
जो अपनी विजय पताका लहराते
लद गए स्वयं मेरी ही पीठ पर
बेताल कि तरह
भ्रमों के धुंध से पट गई सभ्यता
असंख्य दर्शन खोदकर
गढ़ ली गईं परिभाषाएं
निकाल लिए गए चंद गुण-दोष
ईजाद कर ली गईं कुछ कथाएं ,परिकल्पनाएं
अन्धों के हाथी की पूँछ पकड़ |
कुछ सुबह के कन्धों पर चढ ,
खींचते रहे रात की तस्वीरें
शेष रौशनी से पीठ किये
बांचते रहे अँधेरे!
बुद्धि को बिठा दिया गया पहरे पे मेरे
ढोती रहीं पीढियां किस्से
मै खेलता रहा अपने खेल
वो जिल्द बदलते रहे पुस्तक की
और चुकाते रहे मूल्य
पढ़े जाने की जिद का |
कुछ सुबह के कन्धों पर चढ ,
जवाब देंहटाएंखींचते रहे रात की तस्वीरें
शेष रौशनी से पीठ किये
बांचते रहे अँधेरे!
बहुत ही सुंदर ढंग से आपने समय की व्यापकता, शक्ति और समय के रहस्य को प्रस्तुत किया है।
बहुत शुक्रिया रजनीश जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वंदना जी
जवाब देंहटाएंसमय बड़ा बलवान. समय की सत्ता के आगे नतमस्तक.
जवाब देंहटाएंखूब लिखा है आपने. आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ और आपकी रचनाएँ सचमुच मन को छूती हैं.
मनोज जी,इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है !इस प्रोत्साहन के किये हार्दिक धन्यवाद
जवाब देंहटाएंtaareef me kya kahun , bas vismayvimugdh hun
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया इस हौसलाअफजाई के लिए रश्मि जी !:)
जवाब देंहटाएंकल 17/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
bhaut hi sundar...
जवाब देंहटाएंपहली बार आपको पढ़ा ,बहुत अच्छा लगा .....
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar likha hai apne...
जवाब देंहटाएंसटीक और विचारणीय रचना
जवाब देंहटाएंवाह! वाह! सुन्दर चिंतन....
जवाब देंहटाएंसादर बधाई...